स्वांत:सुखलहरी


॥ श्री गुरु कृष्ण सरस्वती दत्त महाराज प्रसन्न ॥

*स्वांत:सुखलहरी*

॥श्री गणेशाय नम:॥
॥श्री सरस्वत्यै नम:॥
॥श्री सद्गुरुनाथाय नम:॥
ॐ नमो श्री गुरुदेवा | अमूर्ताच्या मूर्त भावा |
आत्मरुपाच्या अर्पिसी विभवा | तुज नमन साष्टांग ॥१॥
स्वरूपस्थितिसी रमविसी जीवा | निरंजनाच्या नेसी ठावा |
नलगे काही लागे द्यावा | पाहसी केवल शुद्ध भाव ॥२॥
स्मरण तुझे होता क्षणीच | मागणे सर्व जाते विलया |
प्रेम आठव होता चित्ता | अष्टभाव दाटती ॥३॥
जीव तव कृपांकित | होता जाते दैन्य त्वरित |
अष्टैश्‍वर्य अष्टसिद्धि | चरणासी लोळंगत ॥४॥
तव कृपेचा महिमा | वर्णवेना देवमानवा |
वेदही झाले नम्र | मूक भाव स्वीकारुनि ॥५॥
नेति नेति इति बोलता | तुझे रुप वर्णिले सार्था |
स्वसंवेद्य स्वानुभवेचि | स्थिति ती दाखविसी ॥६॥
मौन हेचि तुझे स्वरूप | जाणवे होता एकरुप |
शब्दातीत अवस्था | अनुभव दाविसी खूण ॥७॥
सहजस्थिति स्वीकारुनि | राहसी गुप्त जनीवनी |
शरणांगत जीवा उपदेशुनि | उध्दरुनि नेसी सहजीच ॥८॥
रुप तुझे अनिर्वाच्य | स्थितिही अनिर्वाच्य |
अनुभवता तव कृपे | स्थिति लाभते अनिर्वाच्य ॥९॥
आपणासम करिसी | या कारणे बोलती |
दाता तुजसम दुजा | नाही नाही त्रिभुवनी ॥१०॥
मायेतुनि सोडविसी | नाही ऐसा सक्षम दुजा |
जन्ममरणाच्या आवर्ती | सोडविसी तुचि एक ॥११॥
सगुण ब्रह्म देह तुझा | निर्गुण ब्रह्म अवतार तुझा |
सगुणेचि निर्गुण | भक्ति सोपान सुलभ सहजा ॥१२॥
तूचि होउनि तुज जाणावे | तूचि होउनि तुज भजावे |
यापरते ना अन्य भजन | जे आवडे तुज गुरुदेवा ॥१३॥
चतुर्दशी पौर्णिमा | कलांचा भेद जो का |
तोचि राखुनि स्वेच्छे | जगती लीला दाखविसी ॥१४॥
कला जरी निम्न | प्रकाशा ना उणीव |
तेवि बोधा ना उणे | जरी द्वैत स्थितिसी उतरसी ॥१५॥
दृष्टी तव कृपामय | स्थिति तव आनंदमय |
द्वैतभावा येवुनि | अद्वैत स्थिति अनुभवविसी ॥१६॥
देणे येथ नाही व्यवहार | कृपादान सहज स्वभाव |
क्रिया न घडता बोधप्रदान | हे वैशिष्ट्य गुरुदेवांचे ॥१७॥
विवेकाचे अधिष्ठान | हृदयकपाट निवासस्थान |
अंतरीच ज्ञानदीप | मार्गी चालविसी सावकाश ॥१८॥
चालविसी म्हणता वृथा | भ्रम नाशिसी सर्वथा |
मूलस्थान करुनि प्रकट | जाण त्याची देसी ॥१९॥
ज्ञान बोध अंतरी | प्रकट स्वरूप हृदयांतरी |
तेचि तू अनुभवसी | वसुनि शिष्या अंतरी ॥२०॥
द्वैत-अद्वैत गुरु-शिष्य | भेद केवळ नाममात्र |
द्वैतात येवुनिही | अद्वैत स्थिति न सांडिसी ॥२१॥
ज्ञान हे सत् स्वरूप | जग हे चित् स्वरूप |
आनंद हे नित्य स्वरूप | तिन्ही गुण तुझे ठायी ॥२२॥
याचिकारणे तव कृपे | लाभे जीवा नित्यानंद |
सच्चिदानंद अभिधाने | तुज स्तविती तिन्ही लोकी ॥२३॥
तू कृपादृष्टी अवलोकिता | त्रिपुटी नासे त्वरिता |
त्रिपुटी रहित तत्वता | जग सारे आत्मरुप ॥२४॥
कृपा तुझी होता | भान जाते विलया |
भाना अभावी स्तुति | कैसी संभवे स्वामीया ॥२५॥
अद्वैती ते रमणे | मी-तू पण जेथ उणे |
स्वानंदसुख भोगणे | एकलेचि ॥२६॥
ते ऐक्य नावडे जीवा | म्हणुनि यावे द्वैत भावा |
चंद्र-सिंधूचा दुरावा | कल्लोळ आणी प्रेमाचे ॥२७॥
प्रेमकल्लोळी पहुडता | सुखतरंगी लोळता |
गुरु-शिष्य एकांता | सुख ते काय वर्णू ॥२८॥
श्रीगुरुची प्रेमदृष्टी | शिष्यहृदयी भाववृष्टी |
एकांती मिळोनि | मिळतचि राही ॥२९॥
संयोगावरी वियोग | वियोगावरी संयोग |
ऐक्यस्थितिचा भोग | हे खेळणे द्वैताचे ॥३०॥
ऐक्यस्थिति दाविसी | द्वैतस्थिति परतविसी |
द्वैत-अद्वैत लीला | खेळ तुझा निरंतर ॥३१॥
शिष्या काय बोली | तुजसीच ना रमवे अद्वैती |
याकारणे शिष्यस्थिति | ना दवडीसी सहसा ॥३२॥
सोऽहंभाव दाविसी सोयी | परि नेदी रमू तया ठायी |
अहंकार हा तुझा | उठावतो प्रेमापायी ॥३३॥
ते प्रेमसुख माधुरी | न संडवे दोहि ठायी |
द्वैतभान राखण्या | करती आटाटी ॥३४॥
जीवाशिवाच्या भेटी | नासते त्रिपुटी |
प्रेमसुख ओहोटी | परी तेथ ॥३५॥
स्वानंदसुख भरती | परि प्रेमसुख आटी |
द्वैतभान घोटी | याचिकारणे ॥३६॥
गुरु-शिष्य भेटीअंती | जे द्वैतभान उठी |
प्रेमसुख रसास्वाद | सेवी ते ही स्थिति ॥३७॥
अद्वैती स्वरूपभान गोडी | द्वैती विरहभान जोडी |
हृदयकुहरी तीव्र | तळमळ उठे ॥३८॥
मीन जळासी झाली तुटी | बाळ मातेसी झाली तुटी |
तेवी हृदयस्थिति | वर्णिता न ये ॥३९॥
स्फुंदे रडे | अवलोकी चोहीकडे |
विमनस्क अवस्थे | शिष्य कालक्रमणा ॥४०॥
अंतरीचे ओघळ | हृदय करी निर्मळ |
जन्मजन्मांतरीचे संस्कार | धुवोनि टाकी ॥४१॥
मग प्रकटे स्वानंद स्थिति | जिची अंतर्यामी वसती |
कले कलेने होय प्रकट | लक्षणे बाह्यवरी ॥४२॥
शुद्ध होय अंतर | गुरु-शिष्य मिटे अंतर |
एकत्वभान क्षणेक्षणे | वृद्धि होय आपैसे ॥४३॥
गुरु देह शिष्य देह | खोळ दिसे भिन्न भिन्न |
परि अंतर्यामी एकत्व | न सांडी सर्वथा ॥४४॥
मग जेथ जेथ जाय दिठी | गुरुत्व भाव तेथ उठी |
चहूकडे गुरुविना | दर्शन स्फुरण अन्य नुठी ॥४५॥
हृदयसिंहासनी विराजित | दिसे निजसद्गुरुनाथ |
बाह्य जगती व्यापुनिया | तोचि दिसे रुपारुपात ॥४६॥
मी द्रष्टा, दृश्य सद्गुरु | भावाचा या येई पुरू |
दर्शन सुख तेचि | भावना हृदयांतरू ॥४७॥
जगती वर्तता ही स्थिति | एकांती स्वस्थ श्रीगुरुमूर्ती |
हृदयस्थ अखंडित | व्यापुनिया तीच स्थिति ॥४८॥
मौनत्वे रहाणे | अथवा वाचाळ वर्तणे |
दोही स्थितित | आत्मत्वे मौन अंतरी न संडे ॥४९॥
सद्गुरु मूर्तीचा ध्यास | तेचि चिंतन प्रतिक्षणास |
विस्मरण हा अवकाश | घेवुनि पुन: स्मरण उठी ॥५०॥
हृदयी भावे सगुण | अंतरी खूण निर्गुण |
सगुणाचे खेळी | ऐसा निर्गुणी लोळी ॥५१॥
सोऽहम् सोऽहम् उमाळे | प्रणव ध्वनि अंतरे |
अर्धमात्रेवरी वेळोवेळे | स्थित होय ॥५२॥
स्वानंदसुखाच्या लहरी | रोमांचित प्रकट तनावरी |
काल-जगत् भान नुरवी | ते स्थिति अवर्णनीय ॥५३॥
सद्गुरु कृपाबळे | शिष्य अनुभवी खेळे |
कृतज्ञते भरुनि ये | शिष्य हृदय वेळोवेळे ॥५४॥
आणून दिधले ऐसे नाही | प्रकट केले ऐसे नाही
दाखविता सोयी | प्रकटले आपेआप ॥५५॥
शरणता कारण त्यास | हृदयी अखंड सद्गुरु ध्यास |
मी-पणाचा झाला नास | उरले केवल स्वरूप ॥५६॥
तेचि स्वरूपसुख गोडी | चाखावया जीवा आवडी |
परि चुकलासे उगमी | म्हणोनि दुख:यातना ॥५७॥
विषयद्वारे सुख भोगे | परि अंती दु:ख रोकडे |
परि तमांधी | भान गळे ॥५८॥
भोगिता ते अचानक | पूर्वसुकृत उगवे कडे |
सत्संग घडे जोड | सद्वाक्य श्रवणी पडे ॥५९॥
तोचि पहाट संधिप्रकाश | तिमिरावरण भेदून |
जाणीवे दे भान | विवेकाचे ॥६०॥
विवेकाचे आधारे | पाउलोपावली |
जाणीव क्रमी | वाट शुद्धतेची ॥६१॥
शुद्ध बुद्धि करी | योग्यायोग्यतेचा निवाड |
परि पूर्वस्मृती संस्कारे | इंद्रिये खेचिती विषयमेळी ॥६२॥
द्वंद्वात्मक स्थिति | पराभव जीवा अंती |
तेचि वेळी होय पहाट | उगवे सद्गुरुराज भानू ॥६३॥
भासे जरी प्रथम भेट | असे तो प्राचीन |
जन्मजन्मांतरी विलोकित | शिष्यवरा ॥६४॥
तेचि खूण पटवी | ठेविता मस्तकी पद्मकरा |
स्वसंवेद्य स्वरूपस्थितिते | दावुनि पुन: दवडी ॥६५॥
दाविण्याचे प्रयोजन | लावण्या स्वरूप गोडी |
दवडिण्याचे प्रयोजन | शुद्धता ना तेवढी ॥६६॥
करुनिया बोधप्रदान | देवोनिया अभ्यास जोडी |
मोक्षसोपान द्वार उघडी | पश्चिमवाटे ॥६७॥
प्राणशक्ति चक्रभेदी | चढे उर्ध्वपंथे |
अग्नितंतू क्रमे वाट | सहस्त्रारीची ॥६८॥
जीवा ना ते सामर्थ्य | कृपाशक्ति सद्गुरुंची |
उफराटी उर्ध्व | वळविली नागीण ॥६९॥
शरीरीच असता | ना कधी जाणीव |
परमेश्वरी लीला | अगाध ॥७०॥
अति खडतर योगाभ्यास | अनंत काळचा |
परि ना जे शक्य | कदाकाळी ॥७१॥
ना अभ्यासबळे ना स्व:सामर्थ्ये | ना जी उलटवू शके |
होय ते साध्य सहजी | केवळ सद्गुरुकृपास्पर्शे ॥७२॥
ना केवल पलटविली | सवे चक्र भेदन |
मूलाधारावरून थेट | नेली ब्रह्मरंध्री ॥७३॥
शिष्यादेही ताटस्थ्य | श्रीगुरु भानविरहित |
शक्ति संक्रमण | घडे आपैसे ॥७४॥
स्वानुभवावस्था | शिष्या दे तात्काळ |
दाता ना दुजा | नाही ऐसा त्रिभुवनी ॥७५॥
नवजन्म जणू शिष्या | श्रीगुरु जननी जनिता |
जन्मताचि मुखी | स्वरूपस्थिति मधुबिंदू ॥७६॥
जन्मताचि शिशू हो प्रौढ | ते मायपित्या केवी आवडे |
हसे रडे खेळे बागडे | त्यातचि असे आनंद ॥७७॥
तेचि स्थिति येथे | भोगण्या तो आनंद |
श्रीगुरु आणी शिष्या | पूर्वस्थिति भानावरी ॥७८॥
घाली जीवनसंग्रामी | दावुनि साधनमार्ग |
चढे पडे शिष्य | सद्गुरु विलोकी कवतुके ॥७९॥
देई स्मरण विस्मरण | मायाजाली परीक्षण |
मग कृपेचे अवतरण | क्रमाने घडे ॥८०॥
विषयबुद्धी संस्कार नाश | शक्य ना एका क्षणात |
स्वरूपस्थिति स्वाद घेता | क्षणोक्षणी घट ॥८१॥
प्रथम बंध मनाचा | संकुचित भाव त्याचा |
महत् जाणीव घ्याया | सर्वथा अपात्र ॥८२॥
स्वरूपस्थिति स्वयंसिद्ध | परि मन जे बद्ध |
आनंद स्थितिते करी | सर्वदा अवरुद्ध ॥८३॥
त्यास काय करील श्रीगुरु | स्वत:च स्वत:ते उद्धारु |
भावार्थ हा गीतेचा | ध्यानी ध्यावा ॥८४॥
नसता साह्यकारी मन | जप ध्यान आसन |
अस्थिरतेने सर्व | व्यर्थ होय ॥८५॥
बाह्य जगत ते एक | अर्ंतजगत कल्पिते मन |
द्वंद्वस्थिति क्षणभर | निवांतता न दे ॥८६॥
तेथ साक्षित्वे रहावे | सारे केवल विलोकावे |
अभ्र जाती विरोनि | कालांतरे ॥८७॥
ते काळपर्यंत चिकाटी नेटे | आसन न सोडावे हट्टे |
मग रमणे होय | निरभ्र गगनी ॥८८॥
गगन व्यापुनिया सर्व दिशे | परि पाहो जाता काही नसे |
तैसे विचार आटता | मन हे नसे ॥८९॥
तेथ उरे केवल | शुद्ध साक्षित्व जाणीव |
स्वरूप स्वसंवेद्यता | अनुभव तेथ ॥९०॥
तेथ रमणे होय काही क्षण | पुनरपि अभ्रावरण |
साक्षित्व ना सोडता | पुनरपि निरभ्र होय ॥९१॥
अभ्यास करावा जरी स्वयेचि | तेथ श्रीगुरुचि काय थोरी |
ऐसा प्रश्‍न बद्ध मन | सहजी करी ॥९२॥
तरी त्यासी उत्तर | प्रथम स्वरूप चवी दाविली तेणे |
विवेक दातारु सद्गुरु | दुजे कार्य आत्मानात्म विचारु ॥९३॥
आत्मबल विरहित साधका | श्रीगुरु भान पाठिराखु |
साधनमार्गी दे बळ | निरंतर ॥९४॥
श्रीसद्गुरु स्मरण | अतिप्रसन्नतेचे कारण |
साधन संग्रामी दारुण | उभारी दे नित्य ॥९५॥
शिष्य बुद्धी जो देहसीमित | त्यासी सगुण स्मरण भावत |
मुखचंद्रमा ध्याता स्मरता | प्रफुल्लता त्वरित ॥९६॥
श्रीगुरु नव्हे देहाकार | तत्व व्यापक सर्वाकार |
निजहृदयीच भावता | सुलभ कार्य ॥९७॥
तेथ बाह्य जाणीव | हळुहळू हो देहसीमित |
अभ्यासे निरंतर | होय हृदयस्थ ॥९८॥
श्वास रोधिता मन रुद्ध | हे सामान्य अनुभव |
परि नाथपंथीची | उलटी खूण ॥९९॥
सुरु तेथ शक्तिचा प्रांत | शिष्य होय तिचे यंत्र |
नाथपंथीच्या साधनेचे | तेचि ते तंत्र ॥१००॥
प्राणशक्तिचा जागर | तिचा मुक्त संचार |
घेऊनिया आधार | पवन चाले ॥१०१॥
रोधिण्याचे काय कारण | होता शक्ति जागरण |
पवन शक्तिचा अकिंत | मनाचा काय पाड ॥१०२॥
पवन होता मंद | मन गति मंद |
जाणीव हो केंद्रित | हृदयस्थ ॥१०३॥
तेचि श्रीगुरुचे स्थान | महदाकार भान |
देहाचीही तेथ | जाणीव गळे ॥१०४॥
ना अंगुळांचा विचार | ना जपाचा आधार |
धारणेचा ना प्रकार | आयतेचि सुख ॥१०५॥
हे कोणे केले | सहजीच झाले |
परि अनुभविले | सद्गुरुकृपे ॥१०६॥
निवांतचि निवांत रमले | शांतिते शांतिसी भोगिले |
काल भान लोपले | ती ही स्थिति ॥१०७॥
जाणीव ते हृदयस्थ | जाणता तो हृदयस्थ |
जाणीव जाणत्यासी | मिळोनि गेली ॥१०८॥
तेथ काय ती स्थिति | जाणताचि विराला |
अनिर्देश्यता तेथ | काय बोलणे ॥१०९॥
परि सूक्ष्म भान तेथ | स्वात्मसुखाच्या लहरी अमित |
अनुभविण्या तेचि | द्वैताचा आधार ॥११०॥
निर्गुणाचि गोडी | पुन: पुन: आवडी |
सेवोनियाही सेवी | परि अतृप्तता ॥१११॥
चतुर्दशी पौर्णिमा | खेळ चाले पुन:पुन: |
शिष्य तटस्थ आसनस्थ | बहुकाळ दिसे जना ॥११२॥
पौर्णिमेसी कसा गेला | चतुर्दशीसी कोणे आणिला |
श्रीगुरुचि करी | द्वैताद्वैताची ही लीला ॥११३॥
सत्‌शिष्या ते वेळे | मी-पणाचा भाव नुठला |
मी-पणा अहंकार उठे | शिष्य तो बुडाला ॥११४॥
शुद्ध जाणीव अन् नेणीव | खेळी त्या नित्य रमता |
भाव मुरला स्थिति मुरली | मी-पणा समूळ नुरला ॥११५॥
विश्वरंग मनतरंग | अनुभविता आत्मरंग |
लोप होऊनि निशे:ष शिष्य | महाशून्यी निशे:षला ॥११६॥
निशे:ष होता शेष काय | ते वर्णिले कसे जाय |
वर्णिता तो कोण तेथ | अनिर्वाच्य ते हे स्थिति ॥११७॥
येणे-जाणे नसे जेथ | शाश्‍वतता असे तेथ |
असणे-अभाव नसे जेथ | नित्यता असे तेथ ॥११८॥
नित्य शाश्‍वत अनुभव | म्हणावा तरी कसे |
अनुभव म्हणता व्यर्थ | अनुभवीच विराला ॥११९॥
प्रियतमेचि प्रियेसी भेटी | स्वशरीर ना भान दिठी |
स्थल-काल-भान विरहित | स्थिति ते जाणीवेचि ॥१२०॥
एकत्वाचि ते जाणीव | परि जाणीवेचि तेथ नेणीव |
परमसुखाचा कल्लोळ | केवळ उरे ॥१२१॥
त्या आनंदसागरी | स्वरूपसुखाच्या लहरी |
श्रीगुरु-शिष्य मीलनी | स्वानंद भोग ॥१२२॥
त्या स्वानंद भोगी | आनंद निरुपाधि |
इंद्रियातीत सच्चिदानंद | दाता केवळ श्रीगुरु ॥१२३॥
हृदयस्थ घे स्व-भान | मनाचे होय विसर्जन |
भानासी काय आकार | तेचि निराकार ॥१२४॥
अनंतता ‘त्या’ची | परिमिती ना साची |
डुबी देता तळ | काही केल्या न लागेचि ॥१२५॥
पलांडू उकलिता | आवरण एकेक गळता |
अंती उरे काय | केंद्री ॥१२६॥
तेवि आवरण एकेक गळता | परिसीमा शुद्धता |
केवल ब्रह्म स्थिति | अभ्यासे येतसे ॥१२७॥
शुद्ध शुद्ध अति शुद्ध | जाणीव होय अति व्यापक |
विश्वाकार स्थिति | अनुभव ॥१२८॥
त्या अनंततेत | विराली सांतता |
कारण अशुद्ध | भान गळले ॥१२९॥
विकार विरता | स्थिति निर्विकार |
मनही नुरता | काळ भान लोपले ॥१३०॥
अनुभवता सारे | गोडीसी लाचावे |
अभ्यासा निरंतर | सहजी होई प्रवृत्त ॥१३१॥
ती हृदयस्थाची ललकारी | अवधान स्वये घेई |
प्रवेशी स्वये | हृदयकुहरी ॥१३२॥
हृदयस्थ सुखरुप आत्मकंद | भोगिता श्वास अति मंद |
तादात्म्य तेचि प्राकट्य | हृदयस्थाचे ॥१३३॥
सहस्त्रदलकमली | रुंजी जीवभ्रमर |
स्वरूपमधुपानी | डोल अंतर्यामी बाह्य ताटस्थ्य ॥१३४॥
तेचि सेवावे निरंतर | स्थितिते मुरावे निरंतर |
जो पावेतो | ना नित्य सहजावस्था ॥१३५॥
मग देह चाले बोले | कर्म करी |
परी अंतरी | नित्यावस्था ॥१३६॥
देहदु:ख परम कठीण | अवस्थे हो क्षणीच घसरण |
त्यापरे जाण्या | मुरण्या लागे अति गहन ॥१३७॥
त्यासाठीच अभ्यास | साधकावस्थे अन् सिद्धावस्थे |
निरंतर निरंतर | तरीच मुरे ॥१३८॥
देहभाव विरे | तरी अभ्यासी पक्वदशा |
परी हे नव्हे | सोपी बोली ॥१३९॥
परतत्त्व स्पर्शोनि | जीवदशे उतरे |
तो अहंकार उठावे | महाभयानक ॥१४०॥
नाना कळा दावुनि | मोही लुभावे |
अंती घालितसे गर्तेत | विनाशाच्या ॥१४१॥
कारण अभाव शुद्धतेचा | वासना ना विरल्याचा |
अभाव पूर्ण वैराग्याचा | याचिकारणे मोहबंधन ॥१४२॥
तरी सद्गुरुस्मरण अविरत | विवेक ठेवी जागृत |
साधन ना मंद करता | नित्याभ्यास ठेवी ॥१४३॥
अनुभव ही गुरुकृपा | तेथ निजसामर्थ्य नाही बापा |
ही जाणीव जरी नित्यता | कार्य साधे ॥१४४॥
येणे रिती अभ्यास करता | देहभाव विरे पुरता |
मग देहावरी येता | बळ लागे ॥१४५॥
निरंतर अभ्यासे | तेहि स्थिति ओलांडे |
आत्मभाव ही तेथ | मुरे पूर्णपणे ॥१४६॥
मग दिसे तो साधारण | ओळखणे महाकठीण |
ओळख पटे तरीच | जरी दावी स्वत: ॥१४७॥
पदरी अति महापुण्य | तरीच ऐसियाचि भेट होय |
भेटला तरी विश्वास होय | तेचि महाभाग्य ॥१४८॥
श्रीगुरुंची करुणा | जीवाची होय स्वीकारणा |
विषयभान सोडुनि | स्वात्मभान देण्या ॥१४९॥
तेचि कारणे | सद्गुरुंची योजना |
परमेशे | केली असे ॥१५०॥
तयांचे मुकुटमणी | अत्रिसुत दत्तात्रेय |
चिरंजीव सद्गुरु | अवतार हा ॥१५१॥
स्मरणप्राकट्य | असे जयाचे वैशिष्ट्य |
तो साधकांसी | नित्य साह्यकारी ॥१५२॥
तयासी स्मरता भावे | परमपदाचा मार्ग पावे |
जाणोनिया शरण जावे | सत्साधके अनन्यभावे ॥१५३॥
हृदयाचि अनन्यता | सोमकांता कृपापाझरा |
कारण होवोनिया | द्रवी सद्गुरु हृदय ॥१५४॥
आर्तता जीवाची | करुणेचा पाझर |
नेतसे उर्ध्व | कृपाहस्त स्वभावेचि ॥१५५॥
त्या परीस स्पर्शा | आतुर तिन्ही लोक |
तो माथा पडता अवचिता | उदैले काय भाग्य ! ॥१५६॥
स्वये पसरली झोळी | शुद्ध भाव याचना |
दान देता तेचि | प्रसन्न अत्रिनंदन ॥१५७॥
भक्ति ज्ञान योग मुकुटमणी | दाता निरपेक्ष पूर्णपणी |
अपूर्णातूनि पूर्ण होण्या | सहाय करी ॥१५८॥
हृदयी स्वयंभू | परि नोहे अनावृत्त |
दाखवुनि सोयी | करी स्पर्शबोध ॥१५९॥
आकळितो याचना | परि नोहे दातृत्त्वभाव |
मी-तू पण भेदभाव | जो नाठवे सर्वथा ॥१६०॥
तेथ कैचे कृपादान | न लागेचि अनुमान |
सोऽहं भाव प्रदान | सहजेचि ॥१६१॥
चुंबकिय कक्षेत | लोहा चुंबकत्व अनायासे |
सद्गुरु कक्षेत येता | तेविचि विनासायासे ॥१६२॥
परि तेथ नव्हे विकर्षण | स्वरूपाचे आकर्षण |
तेणे उठे जीव | महाबोधी ॥१६३॥
लघुत्व सांडुनि | गुरुत्व होये तत्क्षणी |
परी मी-पणाने जीवा | अनुभव विस्मृति ॥१६४॥
लोपण्या विस्मृति | पुन: सत्संगाचि महति |
सद्गुरुवाक्य मनन चिंतन | हाचि खरा सत्संग ॥१६५॥
सद्गुरुप्रणित साधन | अखंडित सेवन |
अनुभवस्थितिसी जेणे | होय वृद्धि ॥१६६॥
न अन्यावलंबन | येर ते शाब्दिक ज्ञान |
अनुभवासी विनाकारण | होय खंडण ॥१६७॥
अखंडित स्थिति | तरलता मनाची |
राखावी जोपासावी | लागे प्रयत्ने ॥१६८॥
त्रिविध तापाचे आघात | स्थितिते करीत बिघाड |
वैराग्यासी निश्चयाची जोड | देता सुलभ होय जे अवघड ॥१६९॥
अटळ विधिलेखिता | भोगणे पडे ब्रह्मादिका |
शांत चित्ताची समता | ही देण गुरुकृपेची ॥१७०॥
जन्मजन्मांतरी कर्म घडले | देहपतनी जे इच्छिले |
भोगण्या तेचि सारे | पुनरपि जन्मासी आले ॥१७१॥
सद्गुरु कृपाकटाक्षे न्हाले | ते स्वरूपभाना रमले |
जीवांसी त्या जीवनाचे | क्षण खेळचि गमले ॥१७२॥
परि कारण नित्याभ्यास | सद्गुरु चरणी अढळ विश्वास |
सोऽहं भाव घेता ध्यास | परमानंदे डुल्लतु ॥१७३॥
तेचि नित्यावस्था श्रीगुरुंची | तेवि होय सत्शिष्याची |
एकात्मता हृदयकमली | भोगिता भ्रमर नुरला ॥१७४॥
हाचि परमार्थसोपान | ओळता श्रीगुरु दयाघान |
कृष्णदासे गुरुकृपे | साक्षात् अनुभवला ॥१७५॥
श्री कृष्णसरस्वती दत्त दयाघन | श्रीक्षेत्र करवीर वसतिस्थान |
तृतिय दत्तावतार | जन्म-जन्मांतरींचा सद्गुरु ॥१७६॥
करुनिया अंगिकारु | माथा ठेविता पद्मकरु |
लाभता स्वानंदस्थिति | स्वांत:सुखलहरी प्रकटली ॥१७७॥
अधिक भाद्रपद कृष्ण सप्तमी | शके एकोणीसशे चौतीस शुक्रवासरी |
प्रथम ओवी स्फुरण | जाहले अवचित सद्गुरुप्रेरणे ॥१७८॥
निज भाद्रपद शुद्ध दुर्गाष्टमी | रविवासर पहाटेसी |
लेखन चतुर्थ बैठकीत | समाप्त जाहले ॥१७९॥
होता प्रथम ओवी स्फुरणा | नव्हती काहीच कल्पना |
कशास झाली प्रेरणा | श्रीगुरुंचे काय प्रयोजन ॥१८०
पूर्ण होता आले आकलना | वदविले परमार्थसोपाना |
श्रीगुरुंची प्रेरणा | नसे वृथा कदाकाळी ॥१८१॥
स्वांत:सुखलहरी अनुभवमाळा गळी | अर्पिता शोभला श्रीगुरु वनमाळी |
पाहोनि हास्य श्रीमुखकमळी | शिष्य प्रफुल्लित हृदयकमळी ॥१८२॥
ठेवोनि माथा चरणकमळी | कृपादान याचना तळमळी |
वाचिता स्वांत:सुखलहरी | अनुभवो तैसेचि श्रीगुरुकृपे ॥१८३॥
प्रार्थोनिया श्रीगुरुनाथ | श्रीगुरु कृष्णसरस्वती दत्त |
कृष्णदास शरणांगत | पदी विनित जाहला ॥१८४॥
॥ श्रीगुरूचरणारविंदार्पणमस्तु ॥
******
~कृष्णदास~
(लेखनकाल:- ७.९.२०१२ ते २३.९.२०१२)

स्वांत:सुखलहरी Printable PDF फाईल डाऊनलोड करण्यास येथे टिचकी मारा.


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *