श्रीकृष्णसरस्वती विजय सारामृत

|| श्रीकृष्णसरस्वती विजय सारामृत ||

॥ ॐ गुरुदेव ॥

SwamiKrishnaSarawati1

गळा शोभती हार ते मौक्तिकांचे | धरू ध्यान सिंहासनस्थ प्रभुचे ॥
जया वर्णिता शेष मौनेचि राहे | गुरुकृष्णपायी वसो धी स्थिरा हे ॥

श्रीक्षेत्रकरवीरनिवासी दत्तावतार स्वामी श्रीकृष्ण सरस्वती दत्त महाराजांचे एकनिष्ठ शिष्य कै. गणेश नारायण मुजुमदार यांनी श्रींचे सगुण लीलांचे पद्यचरित्रलेखनाद्वारे श्रींचे शिष्य व भक्तगणांस अत्यंत उपकृत केलेले आहे. हे गद्यचरित्र दोन खंडात असून श्रीकृष्णविजय या प्रथम खंडात प्रामुख्याने श्रींचे जन्मापासून ते महासमाधीपर्यन्तचे लीलावर्णन आढळते. यांत तीस अध्याय आहेत. द्वितीय खंड म्हणजेच श्रीकृष्णसरस्वती विजय या उत्तर-चरित्रलेखनाचा प्रारंभ प्रथम खंड पूर्ण झाल्यावर जवळजवळ सव्वीस वर्षांनी झालेला असून त्याची पूर्तता सोळा वर्षांनी झालेली आहे. या खंडात पंचवीस अध्याय आहेत. प्रथम खंडात श्रींचे चमत्कारांचे वर्णन प्रामुख्याने आढळते,परंतु उत्तर-चरित्रात मात्र श्रींचे सगुण लीलांसोबत एका परिपक्व भक्तसाधकाचे दृष्टीतून केलेले बोधदिग्दर्शन आढळते. त्याकारणाने श्रींचे हे उत्तर-चरित्र साधकीय जीवनात अत्यंत चिंतनीय व मार्गदर्शक आहे. यातील निवडक चिंतनीय ओव्या एकत्रित करून केलेले हे ‘श्रीकृष्णसरस्वती विजय सारामृत’ साधकांस नक्कीच उपयुक्त वाटेल आणि सद्गुरु अन् साधनेप्रति दृढ निष्ठा व आत्मबल प्रदान करून अंतिम ध्येयप्राप्तीस नक्कीच सहायक होईल.

–कृष्णदास (श्रीगुरुपौर्णिमा २-७-२००४)
***


श्रीकृष्णसरस्वती विजय सारामृत PDF फाईल डाऊनलोड करण्यास इथे टिचकी मारा


।। श्री गणेशाय नम: ।।
।। श्री कुलदेवताभ्यो नम: ।।
।। श्री कृष्ण सरस्वती दत्तात्रेयाय नम: ।।

ॐनमो जी गजानना | सिद्धिदायका संकटनाशना | मंगलायतन सिंदूरमर्दना | करुणाघना परेशा॥
नमो गणराया लंबोदरा | एकदंता सर्वशु्भंकरा | शिवगिरिजा मनमोदकरा | निर्जरवरा गणाधिपा ॥
नमोजी सर्वसिद्धिश्वरा | नमो विद्याकला भास्करा | नमो निजभक्त प्रियकरा | गजमुख उदारा सर्वेशा॥
नमो अनंतदैत्यमर्दना | नमो निजभक्त सौख्यसदना | नमो भवगज पंचानना | षडरिमर्दना गणराया ॥
नमो विघ्नांधकार दिनकरा | विघ्नारण्य वैश्वानरा | विघ्नोरगखगेश्वरा | गिरिजाकुमारा विघ्नेशा॥
ग्रंथारंभी तवपद पंकज | वंदिता सफल अखिल काज | दग्ध जाहले चिंताबीज | श्रीगणराजा दयार्णवा ॥
आतां शारदा विद्यारूपिणी | हंसारूढा विधिनंदिनी | मंदस्मितमुखी वाणी | वंदिली जननी भारती ॥
तियेचा शिरी पडतांकर | त्रिभुवनी कांही नाही दुष्कर | ज्ञानभुवनाचें सांपडतां द्वार | संशय थोर नासला ॥
वैकुंठवासी भुजगतल्पगत | करुणासागर कमलाकांत | अखिलांतरात्मा भगवंत | वंदिला अनंतव्यापक ॥
मोरमुकुटपितांबरधारी | श्रीकृष्ण सज्जन वृंदविहारी | यशोदानंददायी हरी | वंदूंनरहरी देव तो ॥
मायामानुषवेषधर | लीलानाटकी विश्वंभर | नारायण अखिलैकाधार | इंदिरावर वंदूंतो ॥
गदाधरगोविंद गरुडध्वजा | अच्युत अनंत अधोक्षजा | त्रिभुवनसाक्षी सहस्रभुजा | यशोदात्मजा वंदूंभावें ॥
सर्वेंद्रिया प्रवर्तक | एकमेव जे प्रकाशक | तें मन स्वाधीन कल्याणकारक | कर्तानि:शंक तूंदेवा॥
श्रेष्ठसारथी अश्वा समस्ता | स्वाधीन ठेवूनि चालवी रथा | तैसा चंचलचित्तनियंता | त्रिलोकनाथा तूंहोसी ॥
जैसा संग तैसा रंग | मनाची ही रीत अभंग | गुरुपदकमळी राहो दंग | ते चित्त चांग दयाळा  ॥
श्रीमहालक्ष्मी करवरिनिवासिनी | देवी वैष्णवी मायभवानी | कोल्हासुरदैत्यविनाशिनी | कुलस्वामिनी वंदूंते ॥
श्रीनारायणप्रिय भामिनी | इंदिरा क्षीरार्णवनंदिनी | आदिमाया वैकुंठवासिनी | कुलस्वामिनी वंदूंते ॥
तैसाचि खंडेराव कुलपति | जेजुरी मंगसोळी पालीत वसती | विश्वनिवासी मृत्युंजय त्रैमूर्ति | नमूंतयाप्रति सिद्ध्यर्थ ॥
पवित्राचें जें कां पवित्र | मंगलाचें मंगल सर्वत्र | सकल विद्यांचें आद्यक्षेत्र | गुरुजगन्मित्र नमूं तो ॥
श्रीगुरुरूप सगुण साकार | ध्यानास साधन नरदेहधर | ध्याता साधका होतसे सुकर | गुरुसर्वेश्वर साक्षात्‌ ॥
पूजा साधन गुरूचे चरण | सुलभ व्हावया सहज चिंतन | पाहिजे भाव एकविध पूर्ण | आनंद भुवन श्रीगुरु ॥
गुकार म्हणजे निबिडतम | रुकार नि:शेष नाशी भवभ्रम | अखिल भ्रांतिहर श्रीगुरुनाम | पावन परम गुरुपद ॥
श्रीगुरुवचन आद्य तो मंत्र | धर्माचें मूळ गुरुबोल समग्र | गुरु दावितो तें सत्य सुंदर | मनाचा विचार न पालटे ॥
गुरुकृपा अखिल कार्यसिद्धि | गुरुकृपा उपजवी सद्बुद्धि | काया वाचा मन:शुद्धि | सर्वसुख साधी गुरुकृपा ॥
सारूनि देवपूजा परती | श्रीगुरूची करी आरती | भवानीस म्हणे कैलासपती | ते आवडती देवासही ॥
श्रीगुरु स्वयेंचि देव आपण | तेथें कैसें भिन्नपण | लीलाविग्रही नारायण | श्रीगुरुपूर्ण नटला तो ॥
स्वमुखें सांगतसे पंढरीराव | देव तो गुरु गुरु तो देव | तो श्रीकृष्णगुरुदयार्णव | यल्लीलावैभव गाऊं सुखें ॥
पांडुरंग पंढरीचा देव | करवीरी झाला तत्संभव | श्रीकृष्णगुरु करुणार्णव | तल्लीलावैभव गाऊं सुखें ॥
स्वमुखें वदला श्रीगुरुनाथ | देव पंढरीचा तारासदनांत | येऊनि राहिला ऋणमोचनार्थ | तल्लीलाचरित गाऊं सुखें ॥
गुरूचें पूजापाद्योदक | सकळ तीर्थाचें तीर्थ तें एक | प्राशनें जळे महापातक | गुरुभुक्तशेषादिक भोजन तें ॥
गुरुवीण न कळे करणें तें काय | सन्मार्ग दाखवी श्रीगुरुराय | पहा ध्रुव बालक राजतनय | नारदें उपाय दाविला तया ॥
जननी गर्भींच असता प्रल्हाद | उपदेश करी तया नारद | एवं श्रीगुरुचा कृपाप्रसाद | पुरुषोत्तमपद दावील ॥
श्रीगुरो सत्यानंदस्वरूपा | बोधैकसुखधनदायक भूपा | बुद्धिसाक्षी त्रैमूर्ति विश्वपा | कृष्णा कृपासागरा ॥
मी तरी अज्ञानतिमिरांधदास | ज्ञानांजन घाली करी डोळस | देवही करिती तुझीच आस | ज्ञानार्जनास सदैव ॥
चिदात्मरूपें चराचर व्यापक | गुरुत्वें सृष्टीप्रकाशक | तत्वमसि पद ज्ञान-दर्शक | योगमार्गपथिक भजती तुज ॥
ज्ञानार्जनकार्या आद्यदेवता | लीलानाटकी विश्वनिर्माता | शिष्यास देई निजयोग्यता | श्रीगुरुदाता दयार्णव ॥
पुरातन विद्या अथवा नवी | गत वर्तमानकाळी वा भावी | कळेना श्रीगुरुजरी न दावी | पूर्णत्व पदवी गुरूसी ॥
ज्याचिया कृपें सत्य ये हातां | ज्याचिया आनंदें आनंद पुरता | विश्वस्थितिलय कारण कर्ता | मनोमलहर्ता गुरुराज ॥
त्रिलोक शोधितां गुरुगौरव | सुरासुरदानव तैसे मानव | म्हणती गुरुसम नाही देव | श्रीगुरुवैभव वानिती ॥
हरिहरब्रम्हादिक दर्शना | तुमचा सेवक मनी इच्छिना | कदाचित असेल वैकुंठराणा | तुम्हांपुढें उणा वाटतसे ॥
तो श्रीगुरु म्हणे कीर्तनभक्ति | पदरी घेई चिर हे मदुक्ति | नृदेह सार्थक्य सुलभ युक्ति | होता ये मुक्ति अयाचित ॥
तेथ मी याचक न मागे आन | मम हृत्कमळी घालूनि आसन | राहणें तुमचें सिद्धिसाधन | सुखैकनिधान गुरुराया ॥
श्रीपती स्वगुणगानप्रिय | तो म्हणे मीच श्रीगुरु होय | दैविक भौतिक अखिल ज्ञानोदय | पूर्णस्फूर्तिमय मीच की ॥
अखिल विश्वांतरी एकचि तत्त्व | द्वैतभ्रम जाता एकचि देव | तोचि तूं नि:शंक स्वयमेव | मायेचें नांव पुसलिया ॥
मस्तका करांबुज स्पर्श | झालिया सहज अज्ञाननाश | गुरुशिष्यत्वही ठेलें नि:शेष | ये ज्ञानकोश हातासी ॥
केलें जें नाही ब्रह्मदेवें | निपजे तें श्रीगुरुशब्दासवें | अशुभ दैवीचें विसर्जन पावें | महत्त्व वर्णवे कवणासी ॥
गुरुदेवाचिया आलें मना | घडलें ते मिटुनि उघडी जव नयना | सोडिले यत्न त्यजिली वासना | मिळे भक्तजना सर्वही ॥
श्रीगुरुराया मनमोदकरा | सुखदा वरदा सिद्ध्यर्थ माहेरा | अवचित देखतां श्रीमुखचंद्रा | स्फूर्तिचा झरा सहज मिळे ॥
मंगलायतन अभंगलहरी | श्रीगुरुसेवन कल्याणकारी | षड्रिनिषूदन भवार्णव तरी | भाविका तारी भक्तजना ॥
मी तरी केवळ अपराधस्थान | साधनाशून्य विचारहीन | आधार दुजा न गुरुचरणावीण | आलों शरण पायासी ॥
देवा तुमच्या प्राप्तीस उपाय | सेवन करणें तुमचे पाय | करूंन शके जे बाप माय | तो लाभ होय तुमचेनि ॥
तुम्ही तरी विमुक्तसंग | आनंदरूप भवभयभंग | दयेनें भरलें अंतरंग | लाभ अव्यंग आम्हांसी ॥
प्रबळ इच्छा ते मनाची गति | इच्छायोगें घडे कृती | मन संपूर्ण आलिया हाती | त्वत्पदप्रीति सुलभ गमे ॥
दुष्कर्मकरणें आज्ञेविरुद्ध | लाजेकरितां तुमचा अपराध | तें मन निजपद प्रेमबद्ध | करितां अवघड नसे तुम्हां ॥
घडावी नित्य तुमची सेवा | हा दृढ च्छंद लागला जीवा | श्रीगुरुराया आसही पुरवा | उपाय बरवा तुमचे करी ॥
तुमचे सांगितलें करावें | शिरसावंद्य मज जीवेंभावें | घेतलें व्यसन एकचि जीवें | इष्टपुरवावे शिशूचे ॥
चित्ती दृढभाव निबंधन | निश्चलता मूळ ध्यानाधिष्ठान | मनें विसरूनि जावें मनपण | तें सर्वसाधनदाता श्रीगुरु ॥
ध्याना सुसाधन श्रीगुरुमूर्ति | गुरुनाम भजनासी संपत्ति | अभिमान आशा ठायींच जळती | कुविचार जाती सोडूनि ॥
शिष्या पूज्यता त्रिजगांत ये | गुरुपुत्रा सुर मानिती स्वयें | गुरु देईल तें इतरा न ये | दुर्मति भयें पळेल ॥
मस्तकी पडतां कृपाकर | मन एकदांचि निर्विकार | प्रेमें होऊनियां निर्भर | धावेल चरित्रसंगति ॥
विधिलेख बोलासवें खोटा | राजा होय क्षणें करंटा | न विचारी पापपुण्य साठा | निष्ठेचा मोठा भुकेला ॥
गुरुराय सर्व देवांचा देव | जाणें आश्रितजन मनोभाव | यांचेवीण दे सारसर्वस्व | ऐसा करुणार्णव कोण असे ॥
रुचला आचरिला सेवाच्छंद | निरभिमान निराश ऐसे जनवृंद | नि:संदेह त्या देणार स्वपद | दाता प्रसिद्ध श्रीगुरु ॥
वेदवेदांत गीता उपनिषदें | पुराणांतरी व्यासदेव वदे | स्वधर्मपालनें भजनानंदें | श्रीगुरू स्वच्छंदें सेवी जो ॥
दूर पळतील आधिव्याधी | नांदेल तोचि कैवल्यपदी | समाधानें वा भजनानंदी | राहील सुखाब्धिमाझारी ॥
गुरूनी आज्ञापिला तो धर्म | गुरूनी दाविलें तें कर्म | सर्वज्ञ दयाळ आत्माराम | सकळ आराम साधन ॥
गुरुआज्ञेचें परिपालन | प्राणांतावधि न दुजे साधन | नलगे नलगे अन्याचरण | आवडो छंद न अन्यमना ॥
अन्य युगांतरी अज पद्मनाभ | जन्मूनि नाशी संकटें अशुभ | कलियुगी बौद्ध रमावल्लभ | जाहला दुर्लभ सर्वत्र ॥
अनसूयात्मज दत्त अवधूत | अवतरे कलीत मुख्य दैवत | निष्कंटक कर्मविघ्नरहित | करूनि भक्त रक्षितसे ॥
ब्रह्माहरिहरचि देवांश | सृष्टिस्थितिलय कर्ता सर्वेश | दत्तगुरुमाया मानुषवेष | पुढती बव्हंशरूपें धरी ॥
जयाची अखिल जगद्व्याप्ती | अंतर्बाह्य जो भरला विश्वपती | तोचि नटला सद्गुरुमूर्ति | साधक जाणती मर्मज्ञ ॥
पंचमहाभूतें स्वकर्मनिरत | सोडिती स्वप्रांत न सत्तांकित | या दृढविचारें निष्ठावंत | राहती सुशांत निर्भय ॥
धर्म चालिला दिसतां अधोगति | सज्जना छळितां दुर्जन दुर्मति | कलियुगी नटनाटक श्रीपति | अनंतमूर्ति नटतसे ॥
त्रयमूर्ति सद्गुरुस्वरूप एकवट | अनसूयात्मज म्हणविती दत्त | पुढती तोचि की अन्नपूर्णासूत | जन्मला अवधूत श्रीकृष्ण ॥
प्रगटला नामें कुंभारस्वामी | वास्तव्य केलें श्रीकमलाधामी | सर्वत्र भरलों एकदेशी न मी | जाणती प्रेमी मज म्हणे ॥
जय श्रीगुरो श्रीकृष्णसरस्वती | अद्वैत सुखदैक चक्रवर्ति | अत्रिअनुसयात्मज त्रैमूर्ति | त्रिलोकपति दयामया ॥
श्रीगुरुकमलोद्भव कारुण्यमूर्ति | शेषशायी हरी कैलासपती | तो स्वयें श्रीकृष्णसरस्वती | प्रगटे धर्मावनति जाणूनि ॥
रक्षावे भाविक रक्षावा धर्म | यास्तव अवश्य अवतारकर्म | जाणूनि अवतरला पुरुषोत्तम | श्रीकृष्णनामधारक ॥

आप्पा नामक विप्रसज्जन सुधी श्रीदत्त सेवा करी | भार्याभर्तृमनोनुगा प्रियतमा ते अन्नपूर्णागृही ॥
त्यांचा देखुनि शुद्धभाव उदरा येशी स्वयें श्रीपती | श्रीकृष्णा करुणार्णवा गुरुवरा पावे मला संप्रती ॥
होतां व्याधि असह्य फार उदरी झाले भिषक्कुंठित | तैसे होण उपाय सर्व थकले अत्यंत तैं दु:खित ॥
केली क्लेशविमुक्त ते यतिपते सद्भक्त तारामती | श्रीकृष्णा करुणार्णवा गुरुवरा पावे मला संप्रति ॥

न सोसवे उदरव्यथा दारुण | वैद्यादिकांसी नव्हे निवारण | शूळ तो खावो नेदी अन्न | गणिका मरण मागतसे ॥
श्रीगुरुस्थान नृसिंहवाडी | औदुंबरी श्रीकृष्णाथडी | नांदतो दीनदुबळ्यांचा गडी | दु:ख बांदवडी सरेल ॥
तेथें जाऊनि करावी सेवा | सरेल भोग उपाय पहावा | बाईस कळतां वाटलें जीवां | घ्यावे अनुभवा सत्वर ॥
ऐकाहो योगायोग | बाईनें धरिला वाडीचा मार्ग | तीव्र सेवेनें फिटला पांग | हटला रोग समूळ ॥
इतुकेंचि नव्हें सुकृतप्रभाव | मागील उभा राहिला अपूर्व | स्वप्नी सांगती श्रीगुरुदेव | आम्हां द्या ठाव तुमचे गृही ॥
देवी करवरिनिवासिनी | पाचारी आम्हां जगज्जननी | यास्तव येणें तुमच्या भवनी | कार्यकारणी नियोजित ॥
हरखली बाई पाहतां स्वप्न | पावला मज तो नारायण | तात्काळ गांठी आपुलें सदन | वाडीचें कारण सरलें पुढें ॥
पुढें श्रीकृष्णसरस्वती | कुंभारस्वामी नामें ख्याती | तोचि स्वामी दत्तात्रयमूर्ति | अनुभवाअंती बहुजना कळें ॥
गाणगापुरीचा अक्कलकोटी | करवीरास मग आला पुढती | मागें तैसीच पुढें तन्महति | भाविकांसाठी दिसतसे ॥
गोपगोपीस्तव खेळला खेळ | गोकुळी गिरिधारी घननीळ | तोंचि श्रीकृष्णगुरुदयाळ | करी सांभाळ आमुचा ॥
ब्रह्माकार प्रपंचभान | दोनही जया न मुळीहून | भावातीत विदेही जन | गुरु श्रीकृष्णसरस्वती ॥
दत्तगुरुअनुसूयात्मज त्रयमूर्ति | नटला नररूप श्रीकृष्णसरस्वती | संकटी पडतां बहुजन धांवती | मनोरथ पुरती तयांचे ॥
विश्वाद्यस्थान प्रेमसागर | देवत्रयरूप दत्तदिगंबर | करवीरी प्रगट दिसे गुरुवर | सिंहासनी साकार शांतिसुख ॥
तयाचे चरणी दृढविश्वास | तेणेंचि कार्या संपूर्ण यश | कीर्ति अपकीर्तीचा लवलेश | आठव जयास असेना ॥
परी प्रेमास्तव होय लब्धधी | आवडी निष्ठेची परमावधी | भोळ्याभाविका आनंदपयोधी | आपुलें सोडी निर्गुणपण ॥
दामाजीसाठीं झाला धेड | एकनाथागृही खांदा कावड | दळाया कांडायाची आवड | जनीचें गोड प्रेम तया ॥
गोरोबा कुंभाराची गाडगी | घडिली भाजिली प्रेमालागी | कबीराचिया बैसला मागी | महत्त्वत्यागी भावास्तव ॥
तोच की आमुचा पाठिराखा | निवारण करी संकटें दु:खा | काळही पाहूं न शके मुखा | श्रीगुरुसखा रक्षितसे ॥
कांही साधाया अवतारकृत्य | जन्मला त्रैमूर्तिराजा सत्य | आप्पा भटजीचें झाला अपत्य | तत्पदभृत्य आम्ही असो ॥
लज्जा वाटे म्हणवितां दास | आचार न घडे योग्य तयास | अभिमान मात्र दावितों इतरांस | हृदयस्थ मानस जाणे परी ॥
कवण की सुकृत होतें पदरी | पूर्वजन्मींची ठेव हे सारी | सद्गुरु लाभला भवभयहारी | त्रिलोकविहारी हरी तो ॥
चतुरानन हरी कैलासपती | जगदंबा शिवा वैष्णवीशक्ति | एक माझा गुरु श्रीकृष्णमूर्ति | आत्मा वेदांती म्हणती जया ॥
वैराग्यमठी तें अपर गोकुळ | श्रीगुरुकृष्णसरस्वती शिष्यमंडळ | साधूनि पूर्वनिश्चितकाळ | आवरिला खेळ मागुती ॥
धरिला देह उपकारापुरता | लपविला आयुमर्यादा सरतां | लीलात्याच्या परी अविरता | अनुभव येतां दिसती बहु ॥
अहर्निश जवळिकेचे दास | केले विदेही पूर्ण उदास | इतर जनांचा दु:खनिरास | करूनि आस पुरविली ॥
दुर्जनसंहार धर्मरक्षण | निजजन दु:खनिवारण | अवतार घ्याया मुख्य कारण | कुपथावलंबन वारावें ॥
रोगव्याधि संकटपरिहार | सुखविलें अनंत दु:ख जर्जर | लीलानाटकी नटला नर | तारिले अपार भाविक ॥
शुभ्रअंगरखा टोपी हिरवी | वामनमूर्ति शोभली बरवी | काषायांबर काखेस मिरवी | गमला भवार्णवी तारक ॥

ब्रह्मी लीन शरीर विस्मृति सदा निद्रालु जीवापरी | अन्यें अर्भकवत्‌जया भरवितां खाणें पिणेंही तरी ॥
मानी स्वप्न तसें जगी वरिवरी अप्राज्ञसा वाटला | जीवन्मुक्तचि ब्रह्मनिष्ठगुरुतो सिंहासनीं शोभला ॥
ब्रह्माकार प्रपंच भानहि नसे चिद्वृत्तिचा भासक | चित्तवृत्तिविहीन मुक्त असुनी देही विदेहात्मक ॥
जो जीवात्मपरात्मचिंतक नव्हे संकल्प बाधा जया | स्पर्शेना गुरुसर्वदेवमय तो आधी चला पाहुंया ॥

श्रीकृष्णप्रभो मम देवदेवा | तूं परी विस्मृति जीवा | नासूनि मायापटल प्रभावा | दावी अनुभवा अविलंबें ॥
नाही जेथ तुझी वस्ती | ऐसी मेदिनी नाही रिती | सप्तपातळें स्वर्गावरती | अव्याहत व्याप्ती तुझीच ॥
अससी त्रिभुवनसूत्रधार | चराचरांचा मूलाधार | तुझिया मना येता विचार | अशक्य प्रकार असेना ॥
क्षणाक्षणा घडतसे पालट | आज सुसूत्रते उद्यां उलट | स्थिर राहीना विश्वपट | दृश्य तें नष्ट होणार ॥
तुमचिया सत्तें सूर्य तप्त | तुमचिया सत्तें वायु वाहत | तुमचा सत्तांकित व्यापार समस्त | विश्वांतर्गत खेळ तुमचा ॥
नरदेह कच्या मातीचा घडा | आयुष्य पाण्यावरील बुडबुडा | परिणाम दिसे एकचि उघडा | जाईल तोंडा काळाचिया ॥
तुमची इच्छा मम श्रुतिस्मृति | तुमची इच्छा मम धर्मनीति | शिशु स्वहिता काय जाणती | कळवळा चित्ती मायेच्या ॥
शरणागत मी तुझा पोसणा | पडूनि राहिलों दारी सुणा | धावणें नलगे उदरभरणा | ठेवावें चरणासन्निध ॥
श्रीकृष्णसद्गुरो ज्ञानसूर्या | भीक मज घाला पूर्ण दया | विकारवार्ता जावो विलया | सेवूं पायां मोकळ्या मनें ॥
तुमचा करुणामृतार्णव | स्नानार्थ तेथ माझी धांव | अभागी कैसा दास हा तव | श्रीगुरुदेवा उदारा ॥
कांही घडतां मना अनुकूल | म्हणे मी गुरुकृपेचें फळ | प्रतिकूल किंचित्‌ येतां काळ | श्रद्धा अढळ टिकेना ॥
मन कैसें आत्मघातकी | पदोपदी करी विश्वासघात की | गतामृतानुभव विसरुन टाकी | चंचल पातकी केवळ ॥
अनुकूल अथवा प्रतिकूल स्थिति | स्वकर्मासमचि चालूनि येती | अंगी नाही सहनशक्ति | सदैव आसक्ति सुखाची ॥
कासया विचार मजला अन्यथा | थोराची मजला नलगे कथा | द्वाडमनाचा होई नियंता | श्रीगुरुनाथा दयाळा ॥
राहूं आतां एकले नि:संग | तुमचिये ध्यानी अखंड दंग | होऊं देऊं नको धैर्यभंग | दारीचा भणंग तुमच्या मी ॥
आतां येथूनि श्रीगुरुमाये | दीन हा दुबळा घालवूं नये | गोंधळेल मन संसार भयें | चंचलता हृदयें वरिली असे ॥
संसारतापें जाहलों संतप्त | रात्रंदिवस चिंताव्याप्त | गेला गेला नरदेह व्यर्थ | रक्षी दु:खार्त दीनजनां ॥
धांवूनि आलो तुझिया दर्शना | रक्षी रक्षी भवभयभंजना | संन्निध राहूनि सेवावे चरणा | न करी वासना वृथा हे ॥
स्थिर राहीना मन ओढाळ | विवेकपाश न गणी खेळ | भल्याभल्यासी करी निर्बळ | मी तरी केवळ मूढमति ॥
तुमचा मुखचंद्र देखतां देवा | वाटतें अखंड करूं सेवा | क्षणही फुकट जाऊं न द्यावा | भविष्य जीवा काय कळे ॥
श्रीगुरु अखिलदेवाधिदेवा | ज्ञानकल्पतरो जगद्बांधवा | निगमागमवंद्या विधिविष्णुभवा | अखिलदेवात्मया हरे ॥
पुरुषोत्तमा करुणासागरा | कल्पद्रुमा किलमलापहारा | कंदर्पदर्पविनाशा गिरिधरा | यशोदाकुमरा श्रीकृष्णा ॥
नांदणीवासी अन्नपूर्णात्मजा | श्रीकृष्णा कृष्णगुरु महाराजा | दयापयोधरा अधोक्षजा | कृतभक्तकाजा गुरुवर्या ॥
कलियुगी झालास बौध्यमुनी | जन चेष्टा पाहातोसी नयनी | शरण तुज भावें येतां कोणी | भवनिवारणी सिद्ध सदा ॥
धर्म चालला अधोगति | आमुची आम्हांन वाटे खंती | अधमोत्तम कर्में न विवंचिती | सत्यास अवनति पदोपदी ॥
देवा तूं तरि झालास मुका | मूर्तिरूप जणूं पाषाणमृत्तिका | असहाय येता दु:खघटिका | सांगावें दु:खा कवणासी ॥
चाचू पसरूनि मेघाकडे | जलपान मागे चातक बापुडे | असहाय धांवावे कवणाकडे | वारील सांकडे कोण दुजे ॥
तैसी दीनाची न सरे याचना | जावो सिद्धीस गुरुप्रेरणा | ध्यास इतुकाची लागला मना | आयुष्य क्षणाक्षणा चालले ॥
श्रीकृष्णसरस्वती यतिवरा | अज्ञानतिमिरविनाश भास्करा | नाशी नाशी मोहांधकारा | स्वपदी थारा द्यावा मज ॥
अष्टौप्रहर दुसरा च्छंद | नाही नाही धनार्जनांध | स्थिर मनें तव पदारविंद | नाठवी मंद जडमति ॥
दैवें तुम्हां ऐसा समर्थ | लाभला परी न सुचे परमार्थ | वासना नागीण विष अंगांत | भिनलें मोहित मन तेणें ॥
संसारी नव्हे निबिड काननी | षडरींनी नव्हे हिंस्त्र पशूंनी | गांजितां एक तुम्हांवांचूनी | दिसेना कोणी तारक ॥
आचारावीण बोलणें फोल | सुफलप्राप्ति आचारमूल | निश्चय ढळों न द्यावा अचल | ठेवा करणवर्ग स्वाधीन ॥
कलियुगी मायेचा बाजार | असदाचरणी ते मान्यवर | षडरी स्वबळें थोर मुनिवर | करिती जर्जर क्षणांत ॥
क्षणैकमात्रें त्रिलोक भ्रमण | करील ऐसें चंचळ मन | ऐहिक भोगी सदा रममाण | संकट दारुण सन्मार्गा ॥
तथापि होतां तुमची कृपा | मनोनिग्रह मग होय सोपा | सहज लाभलिया कल्पपादपा | मिळे संकल्पासम सारें ॥
इच्छा तुमचीच बलवत्तर | हाती धरणें दीन किंकर | फुकट चालले मानव शरीर | पडतसे विसर त्याचाही ॥
काळाची नाही पडली उडी | दाबिली नाही जोंवरी नरडी | स्मृति तंव अनन्य घडोघडी | घाली एवढी भीक मज ॥
अनंत विचारी मन हें भटकें | चिंतूं नये तें चिंती सारखे | तुझिया कृपेवीण निके | स्थैर्य न टिके कदापि ॥
त्वत्पदसेवनें पातकपंक्ति | विलया जाती लाभतां भक्ति | मनाची नासेल कुतर्कशक्ति | पदानुरक्ति मोक्षाधिक ॥
चतुर्मुख लिपी अपरिहार्य | देवदानवांदिका अनिवार्य | लाभहानीचे निश्चित कार्य | परी मन होय अधीर ॥
किंश्चित तुमचा कृपाप्रकाश | करणार मनोदौर्बल्य नाश | जाईल तुटुनि मायापाश | नेणों समर्थास रुचे कदा ॥
श्रीकृष्णदेवा सद्गुरुवरा | श्रीकृष्णगुरो भ्रमसंहरा | श्रीकृष्णदेवा जगदाधारा | नररूपधरा करुणाघना ॥
देवा झालास मनबुद्धिप्रेरक | स्फूर्तिदान तुमचे मार्गदर्शक | येरवी अभिमानग्रस्त क्षुल्लक | म्हणवितां सेवक अविवेकी ॥
श्रीगुरो कृष्णा विश्वमनोज्ञा | शिरसावंद्य करूं तव आज्ञा | येरवी मत्सम हीनप्रज्ञा | करुणाघना जाणसी की ॥
श्रीगुरुराया तुमचा संदेश | एकमात्र मम आधारविशेष | पाठिराखा तूं परम पुरुष | धैर्य मनास एक हें ॥
आज्ञेचें व्हावें परिपालन | संकेत हाचि धरी मन | राहतां अखंड तुमचें स्मरण | विघ्नविनाशन सहजचि ॥
जय श्रीकृष्णा सद्गुरुराया | करुणासागरा अखिल बोधमया | जगदाधार साधनसूर्या | दत्तात्रेया आद्यगुरो ॥
संसारत्रस्तजन पाठीराखा | अन्य कोण गुरो तुम्हांसारिखा | पावलों तव मुखदर्शनसुखा | जाहलों दु:खावेगळा ॥
कोपले स्वयें विधिहरिरुद्र | तुमच्या कृपेपुढें ते क्षुद्र | पाहतां तुमचा वदनचंद्र | अशुभ अभद्र भय गेलें ॥
निर्वाणी आप्तस्वजनसोयरा | न मिळे न मिळे समर्थ दुसरा | दु:खे गांजी किंकरा | पाही गुरुवरा शरणागता ॥

जया पाहता रंगले चित्त पायी | गुरुकृष्ण तो सेवि नाना उपायी ॥
मना तोचि रक्षील हे सत्य मानी | भ्रमे व्यर्थ धावू नको आडरानी ॥
तुझे दु:ख ऐकुनि घेईल कानी | मना शेवटी कृष्ण तो मोक्षदानी ॥
धरी स्थिरता ना तरी होय हानी | रमे तत्कथासारपीयुषपानी ॥

श्रीगुरो अंत:करण प्रेरका | श्रीगुरो अखिल देवात्मका | मानवरूपें क्रीडाकौतुका | करिसी जनदु:खा हराया ॥
वेणीमाधवा व्यापिलें कामें | तद्हृदयासन केलें रिकामें | निवास तेथ तुम्ही पुरुषोत्तमें | केला सप्रेमें गुरुराया ॥
हृदयासनी श्रीगुरुदेवा | बैसावें अखंड सदाशिवा | चंचल चित्ताच्या सरतील धांवा | अनित्य विभवा न वांच्छी ॥
झालिया तुमचें रूपदर्शन | न भंगे कदापि समाधान | वासना देशोधडी होऊन | संतुष्ट जीवन राहील ॥
अभिमान पळेल वाटा बारा | अरिवर्गांचा उडेल थारा | ध्यानमात्रतव चरितसागरा | तरणी परतीरा पाववील ॥
मंदावली मति कार्यप्रवण | त्वत्पदध्यान सर्वस्व साधन | पदध्यानें मी सिद्धि पावेन | मंगलायतन ध्यान तुझें ॥
ध्यान तव कथाप्रबंध स्फूर्ति | ध्यान तव मार्गदर्शक युक्ति | अविरत ध्यान निष्ठास्मृति | राहतां मुक्ति गौण त्यापुढें ॥
श्रीगुरुशासन आमुचा धर्म | आम्ही कदां न सोडूं हें कर्म | देह स्वाधीन तंव गाऊं नाम | वाटती श्रम न गुरूकृपें ॥
सगुणरूप तव श्रीगुरुदेवा | आमुचा ध्यानानंद ठेवा | पळाला दूर अभिमान गोवा | वासनार्णवा लंघिलें ॥
त्वद्ध्यानमग्न होतां मन | षड्‌रि न केवळ देहविस्मरण | ध्यातयापरी ध्येयसाधन | नसतां उन्मूलन प्रेमाचें ॥
एवढी असह्य आमुची व्याधी | तुमचें ध्यान त्या दिव्यौषधी | तवपद प्रेमपीयूषाब्धि | मी तंव सोडी न कदापि ॥
सिंहासनस्थ तव रम्य मूर्ति | अखंड दिसतां समाधिस्थिति | क्षुधातृषादि अवघी विस्मृति | ज्ञानाची महति न त्यापुढें ॥
नलगे नलगे अपवर्ग | आम्हांस नको देवा स्वर्ग | भजनप्रेम रुचे अभंग | तव दाससंग आवडे ॥
तूं तरी केवढा दयार्णव | कुकर्मी दीन मी मानव | तुझिया दयेची परिपूर्ण पालव | घडिघडि आठव दे चित्ता ॥
दीनता दरिद्रता कुचेष्टा | कुप्रवृत्त्यादि दवडूनि अनिष्टा | मन्मनी आसन श्रीगुरुश्रेष्ठा | घालूनि आतां बैसावें ॥
शांतिक्षमादयेचा मेरू | मी तरी केवळ दीन लेंकरूं | हांक तुजवीण कवणा मारूं | श्रीकृष्णा गुरुवरा दयाळा ॥
हाती धरील मत्सम कुकर्मी | ऐसा आन न देखो क्षमी | मायबाप तूं माझा स्वामी | सेवाधर्मी योजिसी मज ॥
शब्दतरी मी आणूं कोठून | मनासारिखें करावया स्तवन | आतां पायांवरी शिर ठेवून | किंकर दीन राहीन मी ॥
श्रीगुरो कृष्णा मनोभिरामा | अपराधी मी योगिललामा | इतुकी आढळली न क्षमा | पुरुषोत्तमा तुम्हांविणे ॥
बुद्धिहीन मी वेडापिसा | चरिताब्धिपार पावेन कैसा | इंद्रियगण हितशत्रु जैसा | फिरता दशदिशा अपुर्‍या मना ॥
मन हे धांवे धनाकडे | सुरूपशील कांता आवडे | आशा ममतेचे सुटेना कोडें | अहर्निश रोकडें यांत रमे ॥
देवाधिदेवा जगदात्मया | मूर्तिं नटलासी तूंचि आघविया | मायामोहें दृष्टि तरळलिया | पाहें भेदमया जना मी ॥
एकत्वाची करितो बडबड | सुटेना श्रवणपठणें धरसोड | वेदांततत्व न बाणे दृढ | अतपस्क मूढ दास मी ॥
अविश्वास हा महादैत्य | नित्य तें क्षणें करी अनित्य | गमें तयाचें विपरीत कृत्य | भिववी भृत्य मनासी ॥
ऐशिया अखिल मनोविकारा | समूळ निर्दळील्यावीण दातारा | मन:स्वस्थता लाभे न किंकरा | पदी आसरा देणें या ॥
अनंतानंत मनाच्या ओढी | विवेकाभ्यासें मोडूनि काढी | गुरुसेवेंत ही वसे घडी | सत्संग जोडी मिळतां त्या ॥
तें मन सदेह तुमच्या पायी | सप्रेम वाहिलें धैर्य मज देई | अखंड पाठिराखा मम होई | श्रीगुरुमाई दयाळे ॥
तुझिया दर्शनें अंतस्थ वैरी | निर्बल होऊनि जाती दुरी | प्रेमसाधना बळकट दोरी | तेचि मज श्रीहरि गुरो देई ॥
म्हणती तुजला त्रैमूर्त्यंश | परी पूर्ण तूं विधि विष्णु ईश | अक्कलकोटी सारूनि वास | मागुती आलास ये स्थळी ॥
तुझी अवतार परंपरा | तेणेंचि सुखी होय धरा | प्रवर्तता कोणी धर्माचारा | पीडा त्या नरा सर्वत्र ॥
आमुचे आम्हीच या कलियुगी | स्वच्छ जाहलों धर्मत्यागी | न दिसे देवत्व देवता अंगी | दिसती ढोंगी बहुसाल ॥
झाडावें आमुच्या मत्सरमदा | वदनी नसावी स्तुति वा निंदा | विनवितो मूढ तुझिया पदा | कृपाप्रसादा ओपावें ॥
तुमची वाचा हे सहज स्थिति | अनुसरली तथा क्रियोत्पत्ती | नशिब बापुडें त्या काय महति | कल्पना भलती मानवेना ॥
आवडी घेतलें पिसेपण | कर्तृत्व झाकितसे परिपूर्ण | संतजनांचें हे आद्यवतन | करीतसा जतन गुरुराया ॥
जयाचें जितुकें कालोचित | त्यास तें देऊनिया प्राप्त | आपण तरी दिसतां अलिप्त | श्रीगुरुनाथ दयार्णवा ॥
नलगे मजला हें सखोलज्ञान | गुरुमाये पाजी प्रेमजीवन | झालें कासाविस मन्मन | पुढें त्वच्चरण सान्निध्य दे ॥
प्रेम दे प्रेम दे श्रीगुरुदेवा | प्रेमावीण न दिसे विसांवा | आशा चिंताग्निदग्ध या जीवा | ठाव मज द्यावा पदी तव ॥
विषमकाळी मज सांपडला सखा | देवा श्रीकृष्णा तुम्हांसारिखा | निरंतर पायापाशी राखा | आतां पाहूं नका संचित ॥
वाचविलें मज तरी देवा | तुमचिया सेवेंत जन्म जावा | आवड उरली न अन्य जीवा | अखंड ठेवा पदी मज ॥
सेवेंत घडीघडी वाढे सुख | जगाचि तुटली सोयरीक | विसर तुमचा न पडो क्षणैक | घाली बा भीक एवढी मज ॥
कामक्रोधांचा उडवूनि थारा | बाहेर दवडा मदमत्सरा | मोहलोभाची धूळधाण करा | श्रीगुरुवरा मायबापा ॥
षड्रिपु वैश्वानर ज्वाला | जाळिलें तियेनें सुविचार शैला | सारासार निवाडा नुरला | केलें बैलासम नरा ॥
करूनि दुष्टांचा नि:पात | शमदमशांति क्षमासहित | तुम्ही अखंड असावें हृदयस्थ | नलगे मज वित्त सदनसुख ॥
श्रीकृष्णे अंबे दयामये | वत्स अजाण मी तुझा माये | सूक्तासूक्त प्रसंगी जें ये | कृतनिश्चयें लिहितसें ॥
गुरुमाये आलीस धांवुनी | मनींची असह्य व्यथा जाणुनी | अंबे अक्कलकोटनिवासिनी | श्रीकृष्णरूपिणी दयामये ॥
लावील तुम्हांवीण कडे | तो कोण शोधणें इकडे तिकडे | निवारणकर्ता भवाचें कोडें | त्या काय सांकडें समर्था ॥
आमुचे करणीची शून्य प्राप्ति | भलेबुरे ये ज्याचे त्या पुढती | परंतु कर्तुमकर्तुंशक्ति | लाभसी संप्रति तो तूं मज ॥
तूं तरी केवळ समर्थज्ञाता | जाणसी सारी मनोव्यथा | कासया सांगूं आपुली कथा | रक्षी शरणांगता यावरी ॥
मी तरी केवळ अनंत अपराधी | अन्याय बहु घडती पदोपदी | क्षमस्व याचना करितों मंदधी | ठाव दे पदी अक्षय ॥
झिजली नाही सेवेंत तनू | अस्ता चालला आयुष्य भानू | शीणलों वांया लाभ न अणु | इच्छिले वानूं न तव गुण ॥
निरोगी देहशक्ति सदृढ | कार्यक्षम धी असतां वाढ | नश्वर सुखाची लागली ओढ | बनलों मूढ अधम मी ॥
मरणास्तित्व न शिवलें मना | चिरसुख ऐहिक हेचि कल्पना | आतां कळतां गेलें येईना | कैसी विधिघटना चुकेल ॥
जन्मोजन्मी श्रीकृष्णसरस्वती | मी तव दास तूंच गुरुमूर्ति | यथेष्टसेवा घडावी पुढती | वासना अंती राहिली ॥
श्रीगुरुकृष्णसरस्वती | त्याचाचि सेवक होय मी पुढती | अंतकाळींची वासना चित्ती | तेचि मूर्तिमती लाभेल ॥
दैन्यावीण जगति जगावें | संतत हरीचे गुणनाम गावें | मरणी आयासहीन असावें | हें मनोभावें मागणें ॥
श्रीगुरुराया जगत्स्वामिया | दु:ख हें आपुलिया परकीया | सज्जनदुर्जना मित्रा वैरिया | दावी न दयासागरा ॥
प्राण जाईल तैं राहील नियम | तोंवरी देवा न घडो विषम | चालविला दीर्घकाळ क्रम | वारावा विराम विघातक ॥
यापुढें काल कष्ट ज्ञेय | येणार एक जैं मरणसमय | घालितील मुखी पाणी-पय | अर्पण होय न तें तुम्हां ॥
सुदीर्घकाळ अभ्यासिलें | अंती दुर्मिळ तेंचि जाहलें | पदस्मरण यासाठी याचिलें | पाहिजे दिधले गुरुराया ॥
प्राणात्ययेपि नलगे याचना | परी ते इतरत्र की वल्गना | पायापाशी तुमच्या श्रीकृष्णा | दिसला दोष न मागतां ॥
अंतकाळ लाभ अनायास | मागतां लाज न धरी मानस | म्हणे जन्म दिला ते जननीस | स्वभावें सदोष न याचना ॥
बाधी न मरणयातनापदा | लक्षकोटींत दिसे एखादा | दैववान्‌ कोणी मिळवी राजपदा | तप:संपदासंपन्न ॥
तद्वत मरणींही सावधानता | तनु त्रिदोषबाधा विरहिता | स्मरण ये ऐसी असतां अनुकूलता | आमुच्या दुरिता मिळे कांहें ॥
अंतीचे त्रिदोष आगंतुक | लोळविती भूमि करूनि रंक | होतील वेदना प्राणांतिक | स्वनियमबाधक निश्चयें ॥
इंद्रियांसह देह असतां सुस्थिति | भावी तर्क कां दाखवी भीति | कदाचित्‌ वेदनारहित अंती | राहील स्मृति गुरूंचि ॥
चिंतावें ते सदैव चांगलें | शुभार्थामन पाहिजे रंगलें | मंगलाचें फल अमंगळें | कदां न लाभलें सत्य हें ॥
देवचि होईन म्हणती निश्चयें | अंगें देव ते जाहले स्वयें | आमुच्या मना परी तें नये | सेवूं उपायें गुरुपद ॥
सेव्य सेवकता प्रेममाधुरी | त्रिखंड धुंडितां न मिळे दुसरी | श्रीगुरुदास्याची न पवे सरी | आजन्मवरी सुख आम्हां ॥
मनोमय बहुप्रार्थना | नेणता दास मी तुझा श्रीकृष्णा | जीवीची आशा अपुरी राहो ना | नाठवे याचना अन्य मज ॥
स्वतुल्य करावा हा निजदास | चुकवा जन्ममरणत्रास | जनमान्य होणे न रुचें मनास | लागला ध्यास त्वत्पदाचा ॥
आमुचे शिरी तुमची सत्ता | शांतिसागरा विश्वाद्यनंता | अवधूतमूर्ति श्रीकृष्णनाथा | घ्यावें आता पदरी मज ॥
गुरुदेवा कृष्णा शांतिसदना | आनंदमूर्ति भ्रमनिवारणा | मागावें तुज तंव गेली वासना | अहंभावना नेणो कुठें ॥
दाता दिसतां न राहे आशा | मोह मनाचा भागवी सहसा | झाली नि:स्पृहता स्थैर्य दुर्दशा | त्वत्प्रेमफासा सांपडलों ॥
हेचि राहो द्या सहजस्थिति | नलगे नलगे मोक्ष सद्गति | गोडअतिगोड सगुण संगति | गोड अतिप्रीति नामाची ॥
दर्शनमात्रें घडला पालट | नरदेह करणीय समजलें नीट | न सांगतां हृदयी स्फुरण उपदिष्ट | फिके वैकुंठ या दर्शनापुढें ॥
बळावें वार्धक्य मतिविभ्रम | विकलता पावे इंद्रियग्राम | त्वत्ध्यानरहित विषयविराम | दे दे पुरुषोत्तम गुरुराया ॥
यातनामय देह व्याधिग्रस्त | भ्रष्टमति करिती कफवातपित्त | ते वेळें तव रूप अविस्मृत | रहावें हृदयांत वासना ही ॥
देहांतावधि तव पदसेवा | अन्य होवो न वासना जीवा | मम हृदयासनारूढ गुरुदेवा | संतत असावा निवास ॥
झाला नाही जंव देहपात | हृदयी बसावें मम अविस्मृत | तव रूप असावें मनोव्यापृत | स्मरण निभ्रांत अंतावधि ॥
तथापि मरण अनायास | दिसतां त्वद्रूप नयनास | नामचिंतनी स्तिमित मानस | दास गतश्वास करावा ॥
अंतीचा निघुनि जाय श्वास | तोंवरी राहो तुमचा ध्यास | पुढिलिये जन्मी तुमचाचि दास | ठेवा सेवेस उदारा ॥
कैसें पूर्वकृत होतें पदरी | कैसा अज्ञानी धरिला करी | श्रीगुरो तुमची नवलपरी | नेणों परी आम्हांतें ॥
लेकुराचें हिताहित पाहणें | मायबापा तें नित्य करणें | आम्ही केवळ मूढ अज्ञानें | उतावीळपणें चंचल ॥
कामधेनु आम्हां श्रीगुरुवाक्य | जन्मदेहुनि गुरुप्रेमाधिक्य | करितांकाय त्या नव्हे शक्य | देखतां औत्सुक्य भजनाचें ॥
संकट पडतां येई आठव | अनुकूलकाळी स्मरणभाव | शुद्धभूमिका नव्हे शठत्व | साक्षी गुरुदेव जाणे की ॥
घाबरलें मन जाहलें वेडें | बरवें दिसत नाही पुढें | कोसळलें स्थैर्य धैर्याचें कडें | पहा दीनाकडे गुरुमाते ॥
जाणतसा मन्मनीचे देवा | हस्तें न माझिया केली सेवा | भजनरंगी न रमविलें जीवा | संसारगोवा भ्रमवी मज ॥
मुखें न गाइलें स्तुतिस्तोत्र | अर्चना केली नाही सुसूत्र | दर्शना पद शीणले लवमात्र | केवळ अपात्र दास हा ॥
स्वजनरक्षक ही ब्रीदावळी | अनुभव आणि बा विषमकाळी | यातना आठही प्रहर जाळी | देवा सांभाळी दास हा ॥
श्रीगुरुदेवा तूं जनकजननी | काळें गांजिलो पडलोसे व्यसनी | सोसवेना पुढें सोडवी यांतुनी | ऐके विनवणी करुणालया ॥
तुमचे पदी अनन्य निष्ठा | जडतां अभेद दृश्यद्रष्टा | जन्मोजन्मी परी अभीष्टा | मागो वरिष्ठा सेवा तव ॥
जननी जठरा यावें मागुती | मिळावा श्रीगुरुकृष्णसरस्वती | ध्यानी वसावी सुरम्य मूर्ति | सायुज्यमुक्ति नलगेचि ॥
मुखी वसावें नामस्मरण | चित्ती अविचल तुमचें ध्यान | गोडी नाही अन्य यावीण | देह रममाण सेवेमधिं ॥
पुढती व्हावा तुझाचि किंकर | ऐसा जन्म मिळावा सुकर | श्रीगुरोकृष्ण श्रीमहेश्वर | दीन हा पामर पदरी घ्या ॥
कुंभारस्वामी श्रीकृष्णसरस्वती | माझा गुरु तो दत्तत्रयमूर्ति | तत्पदचिंतनी देहविस्मृति | व्हावी हे चित्ती वासना ॥

प्रपंची या माते क्षणभरी नसे सौख्य सदया | सदा चिंतावन्हि प्रखरतर जाळीत हृदया ॥
किती सोसू आता हतबल क्षमा शांतिविमला | दयाब्धे श्रीकृष्णा तुजविण न अन्या गति मला ॥

संसारतप्तजन पाहुनि मत्समान | आलासी धाऊनि प्रभो गुरुरायकृष्ण ॥
नेणो कसे सबल हे मम पूर्वपुण्य | लोकव्दयार्थद दिसे नयना निधान ॥
गुरुवर परमात्मा श्रीजगन्नाथ देव | अससी सकल दु:खक्लेशहर्ता सदैव ॥
धनसुत गृह कांता अंती येती न कामा | भवजल बुडवी हे काढी येथून आम्हा ॥
नरतनुसम झाला लाभ श्रीकृष्णनाथा | तुजसम नयनी म्या देखिला मोक्षदाता ॥
गुणगाण तव गाता चित्त तल्लीन होई | गुरुवर करुणाब्धे मागणे हेचि देई ॥

उपस्थितकाळी अनंतमूर्ति | धरूनी अवतरे सर्वत्र क्षिती | अवश्य पाहिजे ते जगत्‌स्थिति | निर्मी मागुती स्वच्छंदें ॥
स्वधर्मकर्मरत लोकवर्ग | वारावा त्यांचा कुजनोपसर्ग | निजदासा खलनिर्मित दुर्ग | नाशक अपवर्ग मोद दे ॥
तो सद्गुरुक्षेत्रकरवीरस्थ | नामें श्रीकृष्णसरस्वती दत्त | लीला दाऊनि गेला अनंत | अद्यापि जागृत भासतो ॥
विषयी कामीजन मनोनुवृत्ति | किंवा इंद्रियगण व्यसनासक्ति | तद्वदनवरत प्रेमप्रवृत्ति | जयाचे चित्ती दैविक ॥
ऐसे जे अनन्य साधारण | खेळ खेळला ते सवें घेऊन | तयाचे चरित तयाचें आज्ञापन | सामर्थ्यसंपन्न तो एक ॥
होवो ती वासना अभिमान विनाश | तुटावे कामक्रोधांचे पाश | मिळतां श्रीगुरुपदाभिनिवेश | मोकळें मानस सेवेसी ॥
निमग्न जाहला भवांभोधी | पापोर्मिपतित नाडला कुधी | श्रीकृष्णस्मरण कलीमधी | अखिल उपाधिनाशक ॥
मरण यावेंसे कधी न वाटे | परी तें नेणार परलोक वाटे | यास्तव पाथेय पाहिजे गोमटें | श्रीकृष्णस्मरण तें सर्वदा ॥
श्रीकृष्णस्मरण कैसी शिदोरी | तोडी दुरितगणाची दोरी | यमदूतांची भिती निवारी | श्रीकृष्ण अंतरी राहातसे ॥
गया वाराणशी कुरु जांगल | प्रयाग पुष्कर हिमालयाचल | कृष्णनामाचा गजर होईल | राहती अखिल त्या सदनी ॥
जन्म त्याचाचि जाहला सफळ | केलें सार्थक तेणेंचि केवळ | कृष्णस्मरणेंचि घालवी काळ | भयभीत काळ तयासी ॥
तोचि श्रीकृष्णसरस्वती | लीला करूनि दाविल्या मागुती | हें गुज दावी संतसंगति | ठेवितां मति सुस्थिर ॥
श्रीकृष्णगुरूचिये संगति | जन्म वेंचिला नगणूनि संसृति | नंदनंदन हा कृष्ण श्रीपति | कृष्णसरस्वती म्हणतां ते ॥
अखिल विषयांची अखंड विस्मृति | सुखदु:खविचार नाही चित्ती | तारक श्रीगुरुसेवा संगति | ऐसी प्रीति जयांची ॥
तेचि जाणती नंदनंदन | आमुचा गुरु श्रीकृष्ण पावन | कुतर्कवादिया नव्हे ज्ञान | अंतरला कृष्ण तयासी ॥
नव्हे हा कविकल्पनेचा पसारा | श्रीकृष्णदास उदास पुरा | बहुजन जाणती सत्यप्रकारा | करवीरनगरामाजी तें ॥

॥ नाममहिमा ॥
कलियुगी भगवन्नाम महिमा | नरजन्म सार्थका येई कामा | अधिकार नारीनर उत्तमाधमा | कैवल्यधामा नेईल ॥
कलियुगी साधन हरिगुणगान | अथवा अखंड नामस्मरण | नरदेहोचित सुलभ साधन | तें एकवचन सांगितलें ॥
नारद देवर्षि महामुनि | व्यास वाल्मिकादिकां गुरुजनी | शास्त्रवेदांत अखिल ज्ञानी | तयांचे वदनीं हरिनाम ॥
खांद्यावरी सदैव वीणा | हातां चिपळिया ताल गर्जना | रामकृष्णहरी नारायणा | गातां राहीना क्षणभरी ॥
भक्ति बोलिजे परि शुद्धप्रेम | अंतरी ध्यान वदनी नाम | देह विस्मरणें आनंद परम | गातां पुरुषोत्तम कीर्तनी ॥
सार सर्वस्व सांगे नारद | गातां राहूं नये कृष्ण गोविंद | शिरी येऊनि पडतां यमदंड | यातना उदंड होतील ॥
चुकवा चौर्‍याशींचा फेरा | साधन याच देही धरा | बाल्य यौवनी करा त्वरा | दु:खमूळ जरा यातनामय ॥
म्हणा हो म्हणा रामकृष्णहरी | कलीत साधन सोपें न या परी | मोक्ष चालून येईल घरी | बांधा पदरी न अविश्वास ॥
गिरिजानाथ शिवशूलपाणी | भोगी तनुदाह विषप्राशनी | श्रीराम गातां सप्रेमवाणी | सुशांत होऊनि सुखावला ॥
भगवन्नामस्मरण दिनराती | करितां अनायासें जन तरती | नाही याहून सुलभ संपत्ती | संत शिकविती आचरूनी ॥
शरीर मनें जाहली दुबळी | स्वधर्मकर्मे न घडती मुळी | नामगान तैं संत मंडळी | शिकवूनि गेली सर्वत्र ॥
घडावें सहज संसार करितां | संकटी आराम नाम गातां | सुलभ नाहींच मार्गया परता | सांगता संतां रुचलें हें ॥
निर्लज्ज रामकृष्ण गोविंद | गातां भोगिती प्रेमानंद | अनंत जना लाविती छंद | संसार बंध तुटे तो ॥
कर्मे स्वधर्मे भागा आली | तितुकी पाहिजेत आचरिली | घडती न्यूनाधिक्य ते काळी | स्मरतां हरिनामावळी नाशितसे ॥
हरिनामावीण प्रायश्चित्त | नाहीं सुलभ सुखद त्वरित | तें नाम सहज लीलांतर्गत | मुखकर्ण प्राप्त होय की ॥
वाल्मिकी व्यास वैष्णव भागवत | लक्ष्मी शेष मुनि वेद समस्त | गुणगण गातां थकले समर्थ | उपनिषदें समस्त उभी ठेली ॥
*****

आपुले म्हणवितां गुरुराया | भीति काय चरिताब्धि तराया ॥
च्छंद हाचि मन घेईल देवा | त्वत्कृपें तरि घडे तव सेवा ॥
नामरूपी गुंतली वासना | विसरलों सहजचि अयाचितपणा |
जननी बाळाचा दोष पाहीना | तुमचा उदारपणा अधिक त्याहुनी ॥

श्रीकृष्णसरस्वती पूर्णावतार | माझे हृदयासनी बैसला गुरुवर | जगत्पसारा सारा असार | वाटे निरंतर आपणा ॥
श्रीकृष्णावतार प्रेमार्णव | गोपगोपींचा नि:स्सीम भाव | बघतां वेडावे स्वयें तो देव | खेळला यादव तयांसवें ॥
गीतेचा वक्ता ज्ञानसमुद्र | स्वमहत्त्व विसरूनिया यादवेंद्र | भक्षी गोपशिशूंचे सांद्र | उच्छिष्टमधुर लागे तया ॥
तोच कृष्ण तूं सरस्वती | धर्मसंरक्षणी तुम्हां प्रीति | आमुचें भाग्य उदेले किती | नोहे गणती तयाची ॥
कलियुगी भोळे भाविक भक्त | तुम्हां वश करिती प्रेमासक्त | त्यासवें भजनानुरक्त | स्वमहत्त्वत्यक्त नाचसी ॥
संतोषनंदजनक प्रेमा | द्याहो द्याहो मज हृदयाभिरामा | वर्णवेना ऐसा प्रेममहिमा | पूरितकामा श्रीगुरो ॥
पाहतां प्रथमचि वदनशशी | हरपली संशय विचारनिशी | वेडा जाहलों होतों जे विशीं | आपणापाशी दाविलें तें ॥
सुदीर्घ आयु: प्रवासमार्गी | श्रीगुरुप्रताप हृदयंगम जगी | जाणूनि मनेंचि सेवानुरागी | संतोषभागी मी म्हणे ॥
विश्वनिर्मिती स्थिति लय कारण | आदिमाया ते जया आधीन | विश्वनाटकी नारायण | घेतसे जनन पुन: पुन: ॥
सद्भावें निर्गुण केला सगुण | भावयुत भक्तासाठी देवपण | तो हा श्रीगुरुकृष्णनिधान | लीलाक्रीडन दावितसे ॥
अद्यापि भूत-पिशाच्चग्रह | समंधबाधा तापापह | निरस्त होय भवदह दाह | नि:संदेह स्वभावगुणें ॥

॥ साधकबोध ॥
संभ्रांत चित्त जनावास | जग हें सारे स्वच्छंद मानस | धन मान कीर्तिलालसा कोणास | आवडे कोणास हरिभक्ति ॥
आपण आचरिलें तें एकचि सार | वेडे व्यापार गमती तदितर | ऐसा जनसंग आयासकर | यास्तव निर्विचार असावें ॥
अहोरात्र च्छंद एकचि दृढतर | जैसी कां अतूट तैलधार | अन्य जगताचा पडिला विसर | नाठवे स्वशरीर स्थलकाल ॥
ऐशा दृढभावें निश्चल मानस | रममाण होता श्रीगुरुविश्वेश | अंतरी येऊनि करील निवास | अखिलकार्यास यशदाता ॥
त्रिलोकी एकचि प्रशंसनीय | विसरणें संसृति बंधनापाय | गुरूस पूर्णजें कां प्रिय | स्वलाभ ध्येय राखणें ॥
गुरुदेवा रुचे तो एक सत्संग | आवडे औदार्य धैर्य त्याग | चिरकाल विवेक काम विराग | अचलांतरंग सद्वृत्त ॥
न रुचे दुर्दम्य जिव्हालौल्य | विघातक हीन मनश्चापल्य | अतिपानाशन अमंगल्य | बनवी पशुतुल्य जना जें ॥
अवगुण विनाश सद्गुणसंपत्ती | कैसी लाभे हे नलगे भीति | नामस्मरण गुरुलीला गाती | तयांचे पुरती मनोरथ ॥
गुरुलीलागान ऐहिक कामना | परिपूर्ण करील परलोकसाधना | गुरुलीलामाहात्म्य वर्णवेना | अनुभवाविना कदापि ॥
आत्मशांतीची सुचिर प्राप्ति | चित्तैकाग्रता यास आवश्यक ती | दावाया मार्गदर्शक श्रीगुरुमूर्ति | समर्थ होती प्रत्यक्ष ॥
श्रीगुरुरायाची अद्भुतकरणी | सामर्थ्य त्यांचें नेणती अज्ञानी | प्रवेशूनि स्वशिष्यांत:करणी | अवगुण निरसूनि टाकिती ॥
मना सद्विचार स्फुरण | तें तें गुरूचे मार्गदर्शन | झालों आतां गलिताभिमान | गर्वे मम मान कापिली ॥
श्रीगुरुसेवेस अपथ्य स्वार्थ | संसृतिविचार वासनावृत्त | मोक्षापेक्षांही नाणी मनांत | याचना वितुष्ट करी मना ॥
अभिमान वासनेचें वावडें | श्रीगुरुरायास न आवडे | जे जन येती आपणाकडे | तयाचे रोकडें दु:ख हरी ॥
होणार होतें हे दृढभावना | चांचल्यें गांजावें कां मना | गुरुपदसेवेस उणेपणा | आणी विचारणा हीन ते ॥
अकस्मात्‌ घडून येती घटना | विचारें बघतां त्या देशिक सूचना | अंगीकृत कार्या येतां उणेपणा | जयश्रीसोपानातुल्य ते ॥
करूं नये मात्र धैर्ये तत्त्याग | सुदीर्घ प्रयत्न यशाचा मार्ग | इष्ट हातां ये स्वयें अभंग | कल्पिलें लाभे मग परिपूर्ण ॥
अतिवैषम्य वा विफलीकरण | हें तरी विश्वास परीक्षण | मध्यें वैताग अपरिणतलक्षण | ऐशिया गुरुदर्शन दुर्लभ ॥
उद्भवतां अप्रिय प्रसंग विशेष | कळे गुरुपद विश्वास विमर्श | विलोभन परीक्षी श्रद्धा सत्यांश | व्याधी स्थैर्यास कस लावी ॥
भोगत्यागास असतां समर्थ | नाणिती मनी तत्त्याग संत | मोक्षा आड येणार संचित | भाविती त्यक्त नव्हे तें ॥
जेव्हां जेथें जयाकडून | ज्याकारणें जें विधिलेखन | तेव्हां तेथ तें जाय घडून | अकारण यत्न न करावा ॥
निश्चय धैर्य अभय तितिक्षा | सर्वदा यांची करितां अपेक्षा | सुलभ सर्वही स्वकार्यदक्षा | येरव्ही भिक्षापात्र जन ॥
धरूनि धैर्य भजणें भगवंता | होणार होतें न चिंतिता | दिसे कां कोणी दु:ख मागता | कां मग भोगितां जन दिसे ॥
अयाचित अंगा ये निर्धनता | ग्रहपीडा रोग मनोव्यथा | सुखास्तव डोई फोडूनि घेतां | अतिदूर वार्ता तयाची ॥
भोगावांचूनि कदां न सुटे | मागील घडलें बरवें वोखटें | दु:ख भोगितां असह्य वाटे | म्हणती तयातें श्रीगुरु ॥
जाहला जरी ब्रह्मज्ञानी | निजकर्मभोग अवश्य मानी | देवादिकांही कर्मजाचणी | न सुटे ध्यानी आणी हें ॥
दानव मानव सुर सिद्धमुनि | त्रिभुवनी ऐसा नाही कोणी | कर्मसारिलें सकळी भोगुनी | स्वस्थांत:करणी असावें ॥
दृढनिष्ठेचेचि अनन्यमेव | बाह्यसाधना सहाय्य जंव | देखूनियां अढळ सद्भाव | श्रीगुरुदेव सहाय्य तया ॥
नाही कांहींच तिरस्करणीय | दिसेना वस्तु अनादरणीय | पाहिजे दीर्घ विचार समन्वय | दावी गुरुराय स्वाचारें ॥
तिरस्कृति पुरस्कृति मानावमान | हानिलाभादि जीवनमरण | प्रशंसा निंदा प्रसंग कारण | विषमता वारण व्हावया ॥
शांति संतोषानुभव दृढ | कराया जणूं हें निर्मिलें गूढ | सतत प्रयत्नें विवेकारूढ | होईल मूढचित्त हें ॥
घडे तें केवळ कल्याणार्थ | भक्ता मिळे तो वैरिया अर्थ | समविषम भावरहित समर्थ | वागे व्यर्थ कुतर्क मनी ॥
पदरी पडणार सर्व कल्याण | अखंड सेवितां श्रीगुरुचरण | कुतर्क मोहमायावरण | निरस्त पूर्ण होईल ॥
मनांत उठती जे संकल्प | ते ते जाणावे श्रीगुरुरुप | वाईटाचें बरें होय आपाप | मिळेल दुष्प्राप्य सहजचि ॥
इच्छिशील तूं तेंचि होशील | अविचल नियत मनिं हे धरिशील | अबोधपूर्व भव तरशील | सद्भावशील सुखें रहा ॥
दर्शनमात्रेंचि होय संतोष | गावें नाचावें वाटे सहर्ष | प्रेमोद्रेकें विस्मृति देहास | पाडी नि:शेष न वर्णवे ॥
स्वानुभवेंचि ते कळे गोडी | बोलतांबोली पडे तोकडी | सुखाची सर्वां वरिष्ठ हे घडी | सांपडली सोडी मी कदां ॥
यास्तव कांही गुरुपदसेवन | करावें मनी निष्ठा ठेवून | थोडेंबहु दृढ अखंडचिंतन | इच्छा परिपूर्ण करील ॥
मारूनि ममता वासना काखोटी | भक्तिसाधना करणें ते खोटी | दृढनिश्चय हा सेवका पोटी | रहायासाठी वदले गुरु ॥
पांडित्यपूर्ण वेदांत अद्वैत | तैसेंचि द्वैतविशिष्टाद्वैत | शब्दावडंबर साधो न दे हित | सार जें विहित कथिती गुरु ॥
वैराग्यमार्गी आधी न गुंतावें | लोहाचे चणे लागती खावे | अचल निश्चया पारखावें | श्रीगुरुसवें संगति मग ॥
मिताहार मुख्य कारण एक | आलस्य निद्रा विनाशक | कार्य तरी करी उपकारक | इच्छा आंतरिक दृढ लागे ॥
साधकें खावें प्यावें थोडें | नियमित निद्रा घेणें पडे | शरीरस्वास्थ्य कदां न बिघडे | अवश्य तेवढें स्वीकारिजे ॥
नाशिवंताचा काय पाड | सेवेसाठींच पाहिजे धड | एकविधसेवक बोलती उघड | नरदेह कवाड मोक्षाचें ॥
स्वकर्मानुष्ठान यथासांग | फलत्यागपूर्वक करा अव्यंग | स्थल शुद्धिचें पहा पूर्वांग | इच्छिलें अभंग मिळेल ॥
स्नानसंध्यार्चन कर्तव्य प्रथम | अपेक्षित पुढती मन:संयम | अभ्यासावा लागे उपशम | साधा हो नियम निश्चये ॥
नामोच्चार लीलाश्रवण | भगवंताचें गुणगणगान | साधारे उत्तम साधन | कृष्णास मौन यावरी ॥
श्रवणातिरके झाला तरी | पालटे हळुहळु दुराचारी | भगवल्लीलाचरित माधुरी | श्रोत्याचें वारी नास्तिक्य ॥
उपजूं लागला श्रवणी विश्वास | ऐकिलें सागूं लागे इतरांस | कीर्तन सहज घडलें तयास | रुचला संतांस मार्ग जो ॥
कीर्तनामाजी यावया गोडी | गुरुस्मरणाची लागे जोडी | चित्तचंचलता थोडी थोडी | स्मरणचि मोडी गुरूचें ॥
मन लागेना दीर्घकाळ | तरी होऊं नका उतावीळ | नेत्र झांकूनि उघडी तो वेळ | आरंभ निर्मळ इतुकाचि ॥
अल्प स्वल्प न सोडितां केलें | समाधान मग वाटूं लागलें | सर्वव्यापकता तत्त्व बाणलें | स्मरणें मन झालें प्रसन्न ॥
कळोनि आली सर्वज्ञता | गुरुरायाची शक्तिमत्ता | स्मरण वाढवी प्रसन्नता | दास्य सर्वथा न सोडी ॥
अर्चन वंदन पादसेवन | सानिध्य दावी आत्मनिवेदन | कथिलें तुम्हां सारसाधन | सोडा स्वधर्म न कठीण तरी ॥
कठीण फार मोहाचा फासा | साह्यभूत तो अभिमान राक्षसा | आशादि स्मरण निर्दाळी सहसा | सत्सहवासा न सोडावें ॥
मन स्वभावें कुचेष्टा प्रिय | वचनशील नव्हे वैधेय | अनवधान बळें स्वहितक्षय | भोगवी निरय शेवटी ॥
म्हणवूनि सावध अष्टौप्रहर | अभ्यासें जागृत ठेवा सुविचार | वासना अभिमानावर्त दुस्तर | सेवितां, गुरुवर नासती ॥
इच्छिशील तूं तेंचि होशील | अविचल नियत मनीं हे धरिशील | अबोधपूर्वभव तरशील | सद्भावशील सुखें रहा ॥
एकमेकांची सोडा न संगति | सत्संग हरिलाभ साधन जगति | एकांती होय गुरुकथा स्मृति | आपले असती गुरुबंधु तरी ॥
भिषग्वर बघतां रुजार्तवदन | जाणे संपूर्ण व्याधिनिधान | तैसेंचि अखिल हृदयस्थ कृष्ण | कार्यनियोजन करीतसे ॥
कराया अवगुण कारण नाश | झाडाया शिष्य मनोमल दोष | श्रीगुरु योजिती उपाय निरंकुश | शरणागतास रक्षिती ॥
कोणाचा क्रोध कोणाचा काम | आशा इच्छा वासना संभ्रम | परस्पर करवूनि शिष्य संगम | उपदेशे शम पावविती ॥
नाही कल्पना ते सुचे अवचित | झालिया सहज कुविचाररत | गुरुशिष्य दुजे उपदेशामृत | पाजिती तृप्त होय तो ॥
भ्रममाण एक दुजा सावध | एकाकरवी एकास बोध | करविणें हे गुरुलीला अगाध | केवळ शिष्यवृंद जाणती ॥
गुरुसेवेची धरितां आवडी | फुकट घालवूं नये घडी | देऊं नये अविचार सवडी | ध्यानाची गोडी विसरूं नये ॥
चंचलता त्यजुनी गुरुपद ध्यास | अष्टौप्रहर पायी विश्वास | चित्त चेष्टा मग न करी स्पर्श | न रुचे सहवास जनांचा ॥
शय्येवरी जागृत सहज | न कळत अवचित गाठी त्या नीज | तैसे विकार विचार मानसिज | पालटे गुरुराज चिंतने ॥
विधि, निळकंठ, मुनिमंडळ | स्ववश त्या करी न लागतां काळ | त्रिलोकी घालिती धुमाकूळ | तो काम समूळ दवडी गुरु ॥
सांगावी तितुकी महति थोडी | अनुभव स्वांगे घेतां गोडी | भल्याभल्यासी क्षणांत नाडी | तो काम झाडी समूळगुरु ॥
स्वयें गुरुदेव मम पूर्णकाम | नारी नर तेथें अवघे सम | मार सुंदररूप मनोविश्राम | आम्हांस सुगम जाहला ॥
आमुची श्रीगुरुपरंपरा | विसर पाडीत आपुल्या शरीरा | आठव एकचि जगदुद्धारा | नसे तदितरा जगत्स्मृति ॥
कशाचा कामक्रोधादि अहंकार | नाठवे जया घेणें आहार | म्हणवि मी तयाचा किंकर | नाडी कुविचार कां मग ॥
भूत प्रेत पिशाच्चबाधा | हटविले जेणें महासमंधा | तो काय माझिया कामक्रोधा | सहज अवरोधा न करील ॥
वासना अभिमान नाही गेला | नाही बाणली गुरुभक्ति त्याला | कामक्रोधाचा असह्य घाला | यत्नें वळविला नव जाय ॥
निश्चयाचेंचि पाहिजे बळ | निजधर्मकर्म हरी मनोमळ | नामस्मरणाचा करिता कल्लोळ | षड्‌वैरी पळ काढिती ॥
सद्गुस्मरणें कुतर्क वासना | मावळली स्वयेंचि तदा भास ना | नकळे कोणी दिधले शासना | हृदयासनाधिष्ठिताविणें ॥
गुरुस्मरणाचा पहारे झटका | दर्शनेच्छा ती कुकल्पना सुटका | सेवा कुणाची गेली फुकट कां | प्रेमाचा भुका गुरुदेव ॥
स्पर्शेचि अनंतकामिनीकाम | गोकुळीचा कान्हा पुरुषोत्तम | क्षण न लागतां पाववी शम | कृष्णगुरु तो ममतारक ॥
श्रद्धाप्रेमाने जाहला वेडा | ऐसा समीप येतां एखादा | उपचार त्याचा अधिक वा थोडा | न म्हणे कदा गुरुदेव ॥
जनाबाईचें खातां उशिटे | अमृतासम तें मधुर वाटे | ताक गवळ्याचें पितां गोमटें | देवास मोठें रुचे तें ॥
बालस्वभावें अवास्तव | अपराध घडती सहजस्वभाव | प्रसवली त्याची मायेस कवण | तथापि क्षमस्व मी म्हणे ॥
कृतघ्न जन्मती कन्या पुत्र | परी प्रेम न ढळे लवमात्र | पोटा आलें तें पात्रापात्र | नाही विचार अल्पही ॥
काय पूर्वीची सत्कर्मजोड | श्रीगुरुसंगति लाभली गोड | नाही नाहीरें मोक्षाची चाड | लाभावें अखंड सेवासुख ॥
जन्माआधी होतो कोणीकडे | काय आहे मरणापैलीकडे | अनंत वदनी तर्क बडबडे | उकललें कोडें कवणासी ॥
न कळे तयाचा पाठलाग | शिणवी मात्र मना अथांग | कळे तरी त्याचा काय उपयोग | रमारंग न मिळेचि ॥
पूर्ण वासना अभिमान विस्मृति | झाली तरीच ये हाता शांति | भक्तिप्रेमाची लूट आइती | गुरुपदप्राप्ति तेथेंचि ॥
वारिधारा गिरीशिरी | तैशाचि गारा पाषाणापरी | पडतां स्तब्ध सहन करी | निश्चल अंतरी असे तो ॥
साधकजना दुर्जन वाग्बाण | विंधिती तैं अखंड शांत मन | ठेवावें विचारविरहित मौन | पर्वत साधन दावतिसे ॥
क्षणांत येथ क्षणांत तिकडे | चमकतां विजेस आकाश थोडें | तैसें मन पळतां चोहींकडे | कदापि न जोडे आपुलें हित ॥
निबिडांधकार रात्री पथ | दिसों न देईतैसें स्वहित | अंधासम जन मायेनें भ्रांत | नरदेहा उचित न देखती ॥
मेघी झांकिला रजनीकांत | नेणो कोठें तरी सेवी एकांत | साधकें तैसें दुर्जन व्याप्त | स्थान दूरस्थ राखावें ॥
ओढा भरे ओसरे तेवि | अल्प करी बहु गाय थोरवी | बोलूंनये तें बोलून दावी | ऐसी त्यागावी वासना ॥
वृक्षवेलीस सुख दे वृष्टी | भुकेल्यास धनसम संतुष्टी | तैसा भवरोग पीडित दृष्टी | देखतां पोटी दया यावी ॥
आंगणी जाऊनि आकाशाकडे | पाहता दिसे चंद्ररूपडें | निस्तेज केवळ रवितेजापुढें | ऐसेचि घडे गुरु म्हणती ॥
परसदना कां कार्यावीण | जाऊनि होणें तेजविहीन | बरवें नव्हे कां एकांत सेवन | उपद्रवशून्य सदैव ॥
इतुके बोलूनि शयनागारी | निघूनि येती गुरु झडकरी | दीपास म्हणती खरोखरी | सत्पुरुषापरी भाससी ॥
करील कोणी श्रुतिशास्त्रपठण | किंवा तस्कर हरील धन | बर्‍यावाईटा साक्षी पूर्ण | बैसका त्यजिसी न आपुली ॥
कोणी कांही करो स्त्रीपुरुष | आपणा कायसा सख्यद्वेष | पाहणे नाही बा विशेष | दीपा निर्दोष संत तूं ॥
अहारे विधातिया बरवें केलें | दुर्जन निर्मूनि काय लाभलें | असत्यामुळे सत्य शोभलें | हेंही भलें तव कार्य ॥
दुर्जन सत्पुरुषाची कसोटी | निंदाघर्षण कलंक निवटी | सापेक्ष सकळ निर्मी परमेष्ठी | महत्त्व शेवटी तेणें कळे ॥
विधीनें केले तैसेंचि घडे | आपण बघूं नये इकडे तिकडे | कोणास कैसी चेष्टा आवडे | आपुलें न नडे त्याविना ॥

॥ श्रीगुरुध्यान ॥
सारिलें भोजन की उपवासी | कळेना दिवस किंवा निशी | एकाग्रता दुर्मिळ मिळतां ऐसी | समीप सुखरासी श्रीगुरु ॥
सांगा हो सांगा भक्तप्रमुख | विरह देतसे दु:ख की सुख | विरहोत्तर विसरेना श्रीमुख | सदैव संमुख स्वामी दिसे ॥
सिंहासनी दिसतां प्रत्यक्ष | अचूक सर्वदा न लागे लक्ष | येतां निरंतर दर्शन दुर्भिक्ष | आम्ही साक्षेप बुभुक्षितापरी ॥
गुप्त व्हावया पूर्वी चटका | मना लागला नव्हता इतुका | आतां विसरेना पावही घटिका | विरह सुखद का दु:खद ॥
वियोगानुभव अक्षय पदोपदी | मना गुंतवी स्मरणाचे नादी | अति मद्यपानें चढावी धुंदी | शरीरशुद्धि जाय तशी ॥
सदा आठवे श्रीकृष्णलीला | विचार तदाकार जाहला | विरहव्यथेस मनें जो विकला | गुरुपद पावला चिरकाल तो ॥
जन्म घेतला जयाचे पोटी | पाठविणें होतें तया वैकुंठी | विरहव्यथेनें ध्यान हृत्‌पुटी | ठेवूनि शेवटी तरले ते ॥
विरहदु:खास्तव येतें रुदन | अविरल एकाग्र करी तें मन | नाही नाही विरही विस्मरण | विरहें उदासीन होउं नका ॥
विरहव्यथेचें जें कांबीज | सुदीर्घकाळें फळेल सहज | सोडा दु:ख हें पाहूं निजकाज | श्रीगुरुराज स्मरूंया ॥
मन जैं प्रेमें नि:शेष रंगलें | श्रीगुरुध्यान व्यसन बळावलें | साहजिक देहसुखदु:ख गेलें | पाहिजें कथिले कांतुम्हां ॥
श्रीगुरुरक्षणकवच बळकट | व्याघ्रसर्पादिकां बुद्धिपालट | मच्छरमक्षिका न येती निकट | होती निष्कपट शत्रुजन ॥
पहारे सद्भाव महति कैशी | निश्चित गुरुदेव भावापाशी | म्हादबा पाहिला नेत्रेसी | सत्प्रेमपाशी सांपडे गुरु ॥
नलगे ज्ञानाचा सोस कोरडा | आचारविहीन बोलतो कुडा | ऐशिया ममाहं बनवी वेडा | नेणे बापुडा स्वहितासी ॥
सेवाधर्म श्रेष्ठ त्रिजगती | संपूर्ण त्याग दे मन:शांति | वासना ममतां मोहच्युती | प्रेमप्राप्ति सुगम पुढें ॥
पहाहो सप्रेम साधनप्रताप | वांच्छिता कदापि न जें दुराप | पाहिजे अकृत्रिम यत्नसंकल्प | संसारताप शमवाया ॥
संकटी सहेतु धरूनि अंतरी | पूजन स्मरण दर्शन करी | वाटलें इतुकें अशक्य तरी | तयाही न अव्हेरी कदां गुरु ॥
कठीण काष्ठ सहज भेदी षट्‌‌‌पद | कमळांत सांपडतां न करवे उच्छेद | देव हा तैसा सद्भावबद्ध | निज शिष्यवृंद सोडीना ॥

॥ शिष्यलक्षण ॥
गुरुबोल कदा पडती कानी | आवडें जया एकचि मनी | अन्य जगाची नसे आठवणी | शिष्यशिरोमणी तोचि की ॥
भागा आलिया निजधर्मी रत | श्रीगुरुशासना सावध चित्त | सर्वदा कामादि दोषमुक्त | अवस्थात्रयांत गुरुस्मृति ॥
मौनें ठायींच निर्मिली स्फूर्ति | सद्गुरुकृपा सेवक संपत्ति | असो कैशीही प्राप्त परिस्थिति | संतोषवृत्ती भंगेना ॥
अंत:करण इंद्रियें स्ववश | ठेविली लावुनि विवेकांकुश | अवघड हे विना पूर्वपुण्यांश | राहिले निराश अखंड ॥
आज्ञा होत जावी क्षणक्षणा | सेवालाभ तेणें आपणा | सिद्ध सर्वदा गुरुसेवना | असतां मना सुख वाटे ॥
अनन्य भावनेचा अधिकार | सेवेस्तव तृण मानी शरीर | वासना अभिमान गेले विकार | आवडला गुरुवर म्हणती तो ॥
अनन्य अखंड ज्याची सेवा | नाठवे देह न रुचे विसांवा | द्रष्टा अभिन्न झाला दृश्यत्वा | योगक्षेम देवा त्याचा पडे
चातुर्यवान्‌शुचि पूर्ण विवेकी | मितभाषी शांत निर्मल लोकी | गुरुभक्ति पावे तोच एक की | हृत्तापहारकी यल्लीला ॥
इच्छा-संग्रह-आस-परित्याग | हर्षशोकभय सुखदु:खभोग | या नांव बंध हा भवरोग | ययाचा लाग दु:सह ॥
इच्छा हेचि मनाची गति | इच्छेनुरूप घडे कृति | मनास एकचि गुरुपदरति | असतां पुरती मनोरथ ॥
घ्यावे कांही कांही त्यागावें | मानावा मोद वा कोपावें | सकळ विसरला जीवेंभावें | तेणेंचि मिळवावें गुरुपद ॥
कोठेंही नाही गुंतलें चित्त | अहर्निश राहे अनासक्त | मुक्ति नोवरी तो गुरुभक्त | पर्णूनि होत सुखी सदा ॥
अल्पही जाहलें आसक्त मन | तरी तेंचि कां नव्हे बंधन | तुम्हांपुढे पामर मी दीन | विचार कवण सांगावा ॥
चित्ती अत्यंत निर्मलता | क्षणैक बिघडे न प्रसन्नता | येणें मार्गें सेवा साधितां | श्रीगुरुनाथा पावेल ॥
संसार असूनि मानिला नाही | अहर्निश राहिले श्रीगुरुगृही | सारसर्वस्व गुरुसेवा जिही | सार्थक नरदेही ओळखिलें ॥
साधिली श्रीगुरुसेवा संपदा | दवडिला क्षण न भजतां सुखकंदा | अवघियांत या सेवकवृंदा | पाववी स्वपदा गुरुमाया ॥
गुरुसेवा असिधाराव्रत | जाणूनि अंगिकारी भक्त | निश्चय अढळ बघतां गुरुनाथ | तया आत्मवत्‌ करीतसे ॥

॥ श्रीगुरूवचन ॥
ऐकारे ऐका भक्त प्रेमळ | विसरा मनाची पूर्ण तळमळ | नलगे तो विचार सोडा सकळ | हरिपद कमळ स्मरावे ॥
कृष्णास अगत्य जाणे पडे | सदेह दर्शन सर्वांन घडे | अन्यथा मानूनि व्हाल वेडे | कार्य मग बिघडे स्वहिताचें ॥
स्वामी म्हणती ऐका सारे | आम्हां वस्तीस विश्व न पुरे | तुमचे मनोरथ तथापि पुरे | करणें बरे यावरी ॥
सर्वेंद्रियाच्या स्वैरवृत्ती | निश्चय बळकट घेऊनि हाती | अन्यजनांची अत्यंत विस्मृति | जे कां साधिती अभ्यासें ॥
तयाचे हृदयमंदिरी निवास | करूनि राहूं धरा विश्वास | देहांतावधि दर्शन तयास | रजनी दिवस अखंड ॥
धनार्जन भोजन शयानादि सारे | चालवी परी देवा न विसरे | वाहूं लागतां सुखदु:ख वारे | निवांत स्मरे आम्हां जो ॥
अन्यायाची तिरस्कृति | अन्नदानाची आवड चित्ती | साह्या धावें पाहूनि दीनार्ति | आमुची वस्ती तन्मनी ॥
सदाचरणास न सोडी कदा | उद्भवलीया अनंत आपदा | परस्त्री मानी जैसी जन्मदा | तच्चित्त सदा वैकुंठमम ॥
परांही निंदितां करीना पर्वा | विसरेना कदा समता भावा | मित मधुर सत्य आवडे जीवा | कृष्णास विसांवा तन्मनी ॥
सदैव निमग्न आपुले छंदी | एकांत मौन भजनानंदी | स्तुति करीना न कुणा निंदी | हृदयी बांधी कृष्णास तो ॥
आपुली ऐकूनी परकृत निंदा | निर्विकार स्थिति न त्यजी कदा | शांति पत्नीसह भोगी आनंदा | तन्मन सर्वदा वैराग्यमठी ॥
नेणें तहान नेणें भूकही | हेतुवीण जो विचरे मही | देहविस्मृति असोनि देही | पडे संदेही न कदापि ॥
हृदय तयाचें आमुचा मठ | किंवा कृष्णाचें तें वैकुंठ | वस्तिस्थान कळलें की नीट | सोडा फुकट दुराग्रह ॥
रंगले कृष्णप्रेमातिरेकें | आम्ही न जाऊं हे त्या निके | आमुचे कथिले मानूनि सेवकें | रहावें सुखें स्वच्छंदी ॥
निमाल्या मनोर्मि पूर्णनिराश | असूनि नसेचि संसारपाश | आमुचिया व्यसनां जागृत मानस | सदेह तयास कृष्ण सदा ॥
कृष्ण प्रेमाचा फार भुकेला | प्रेमळ भक्त सोडून गेला | प्रेम दे साधूनि सायुज्यतेला | प्रेमें केला वश कृष्ण ॥
प्रेमहीना समीप नये कोणी | प्रेमनिष्ठेस्तव धावे प्राणी | प्रेमसेवा तव पावे सगुणी | कृष्णास राहणी तोचि की ॥
आला सोडूनियां वैकुंठ | आला त्यजूनि पंढरीपीठ | पिता माता जन्मस्थाना सकट | सोडिले अवीट प्रेमास्तव ॥
तो कां देखतां विशुद्धभाव | जाईल दूर सांगा सर्व | कष्टी होऊन कां देव | जवळी सदैव असे तुम्हां ॥
स्मरणमात्रें जो वारी शोक | जवळीच आहे पहा नि:शंक | अजरामर तो अंतकांतक | विश्वव्यापक परमात्मा ॥
पहा एकाग्र करूनि मन | दिसतो कैसा साकार सगुण | आपुलिया देहाचें विस्मरण | प्रेमविश्वास धन आमुचें ॥
प्रेमें नाचूंया करूं भजन | रामकृष्ण नामगानी तल्लीन | अष्टौप्रहर तयाचें चिंतन | पहा सुखसाधन केवढें ॥
प्रेम तें वर्धमान आवडी | प्रेमवेड देहविसर पाडी | सेवा प्रवृत्तकर प्रेम जोडी | जडलें न सोडी सत्प्रेम ॥
हृदयी प्रेमाचा अखंडझरा | सेवेसाठी विसरे शरीरा | धुंडीत येतसें ज्ञान त्या नरा | अनुभव पुरा पुराणीं पहा ॥
बाहेर वाटे जाहला गुप्त | ध्यानें सुगम निज हृदयांत | आठही प्रहर मूर्तिमंत | बघतां तृप्त व्हाल की ॥
विखुरता चित्ताच्या कल्पना | पहारे तयांत सुख स्वल्पना | आम्ही जाऊंहे सोडा जल्पना | विसरा कदा ना बोलणें हें ॥
॥ श्रीगुरूकृष्णसरस्वती पदारविन्दाय नम: ॥
॥ शुभं भवतु ॥


श्रीकृष्णसरस्वती विजय सारामृत PDF फाईल डाऊनलोड करण्यास इथे टिचकी मारा


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *