श्री अमृतसार – श्री ज्ञानेश्वर महाराजांच्या श्री अमृतानुभव या अलौकिक ग्रंथाचे सार!

॥ श्री अमृतसार ॥
(श्री ज्ञानेश्‍वर महाराजांच्या श्रीअमृतानुभव या अलौकिक ग्रंथाचे सार)

असणेपणे जे | असुनिया नाही | व्यापोनिया राही | सर्वत्र जे॥१॥
आत्मतत्त्व ऐसे | वर्णवे ते कैसे | खुबी जमतसे | ज्ञात्यासीच ॥२॥
नेति नेति इति | वेद मौनावती | वर्णवेना मति | थोकडीच ॥३॥
शुद्ध जाणीवेसी | जाणीव ती ग्रासी | गिळे जाणत्यासी | विलक्षण ॥४॥
म्हणावे ते आहे | आहेपणे आहे | आहेच ते आहे | स्वयंसिद्ध ॥५॥
आहे स्व-संवेद्य | मूलतत्त्व आद्य | ना जे वर्णनीय | के वर्णवे ॥६॥
आहे म्हणो तरी | दावाया ते परी | कुंठित हो सारी | मति जैसी ॥७॥
मौने घ्यावी खूण | जरी आकळून | दुज्या ती वर्णोन | कै दावावी ॥८॥
स्पष्ट थेट जैसी | दावू शके कैसी | वर्णवे ती जैसी | उपमाचि ॥९॥
उपमा ती परी | आहेचि अपुरी | शब्दांची ती सरी | नाहीची गा ॥१०॥
स्वानुभूतिपूर्ण | बोल ते संकीर्ण | परि परिपूर्ण | ज्ञानेशाचे ॥११॥
अनुभवामृती | रचिले प्राकृती | हीच चमत्कृति | माऊलीची ॥१२॥
गहन विषय | उपमा प्रमेय | सुलभ ते होय | आकलन ॥१३॥
वय जरी सान | तोले कैसे ज्ञान | विभूति महान | श्रीज्ञानेश ॥१४॥
अनिर्वचनीय | जे अवर्णनीय | दश ते अध्याय | वर्णियेले ॥१५॥
श्रीनिवृत्तिनाथा | अन् आदिनाथा | भावे त्या वंदिता | ग्रंथारंभी ॥१६॥
कैसा बहर तो | प्रतिभेसी येतो | पदोपदी येतो | प्रत्यय तो ॥१७॥
शिवशक्तियोग | प्रथम विभाग | विश्वी जे दो भाग | केवळचि ॥१८॥
शिवशक्तिचे जे | समावेशन जे | प्रथमाध्यायी जे | विवरिले ॥१९॥
तो प्रणय भोग | राखुनि आवेग | न लज्जा संयोग | अध्यायी या ॥२०॥
विश्वी शिवशक्ति | दो भाग नांदती | खेळ ते खेळती | एकांगाने ॥२१॥
शिव निर्विकार | अकर्ता साचार | असे निराकार | पुरुष जो ॥२२॥
शक्ति ती चंचल | कर्ती ती एकल | साचार केवल | प्रकृति जी ॥२३॥
शिव ज्ञानरूप | शक्ति वृत्तिरूप | दोघे अनुरूप | एकमेका ॥२४॥
शिव असे स्वामी | अकर्ता तो नामी | शक्तिरूपे निर्मी | स्वामिनी ती ॥२५॥
विश्वाचा पसारा | शक्ति खेळ सारा | निर्मुनि असारा | स्वये लपे ॥२६॥
असार या बोले | जरी त्या वर्णिले | वस्तुरूप भले | सर्वचि ते ॥२७॥
एकरूप होता | निष्क्रिय तत्त्वता | जी स्वसंवेद्यता | स्वरूप ते ॥२८॥
शिव अधिष्ठान | शक्ति ते दर्शन | स्वस्वरूपी लीन | दोहीं नित्य ॥२९॥
एक होता व्यक्त | दुजा तो लोपत | दोहीं ते लोपत | आत्मरूपी ॥३०॥
जगत् पसारा | विलासचि सारा | शक्ति खेळ न्यारा | शिवाधारे ॥३१॥
चिद्‌वस्तू जी भासे | स्वसंवेद्य असे | भोगी शक्तिमिसे | निजानंद ॥३२॥
द्वैत व्यवहार | प्रसव साचार | शिवाचा आधार | शक्तिलागी ॥३३॥
शक्तिवीणे शिव | शिव शक्ति-ठाव | भेदाचा अभाव | दोहों ठायी ॥३४॥
भेद न मोडिता | विश्व रचयिता | भेद तो लोपता | स्वानुभव ॥३५॥
शिवशक्ति भेदे | विश्वाभास बोधे | प्रत्ययी अभेदे | चिद्विलास ॥३६॥
वायु-गति जेवि | शिव-शक्ति तेवि | अग्नि-ताप जेवि | उपमेसी ॥३७॥
शिव-शक्तिरूप | सद्गुरु स्वरूप | असे ज्ञानरूप | नेणिवेत ॥३८॥
श्रीगुरू स्तवन | अध्याय तो दोन | महत्तेची खूण | वर्णिलीसे ॥३९॥
श्रीगुरू गुरुत्व | शिष्य ते लघुत्व | भेदातीत परत्व | पूर्णरूप ॥४०॥
मिथ्या गुरुत्व जे | नाशी अज्ञान जे | भान शिष्यत्व जे | लोपवीत ॥४१॥
साच भेटी अंती | लोपवी त्रिपुटी | कारुण्य गोमटी | गुरुमूर्ती ॥४२॥
अद्वैत अभेद | राखुनिया द्वैत | क्रीडी जे विश्वात | गुरुतत्त्व ॥४३॥
स्वरूप ठावासी | दावोनि जीवासी | सकल दृश्यासी | चिन्मात्रत्त्व ॥४४॥
ऐसा चमत्कार | दावी जो साचार | मूळी निराकार | स्वसंवेद्य ॥४५॥
ऐशा श्रीगुरूचे | स्तवन ते साचे | बळ ना शब्दांचे | मौन भले ॥४६॥
त्रिपुटीचा लोप |सद्गुरु स्वरूप | करी एकरूप | ब्रह्मरूपी ॥४७॥
ज्याची कृपादृष्टी | कारुण्याची वृष्टी | आत्मबोधे तुष्टी | शिष्यासी गा ॥४८॥
वाचाऋण शेष | कराया नि:शेष | परिहार विशेष | तृतियात ॥४९॥
स्थूल सूक्ष्म अन् | तिसरा कारण | हो महाकारण | चौथा देह ॥५०॥
वैखरी स्थूल तीे | मध्यमा सूक्ष्म तीे | त्याआधी पश्यन्ति | मूळ परा ॥५१॥
चारी देहाप्रति | वाणी एकेक ती | घेतसे प्रकृति | शब्दरूप ॥५२॥
शब्दाच्या त्या बोधे | अविद्या ती भेदे | होय ज्ञानबोधे | साक्षात्कार ॥५३॥
अविद्या जै लोपे | वाणी तै लोपे | परि ना हारपे | अहं ब्रह्म ॥५४॥
अहं ब्रह्म बोध | उरवितो बंध | मोक्ष प्रतिबंध | तेणे गुणे ॥५५॥
अहं ब्रह्म जिरे | सोहं बोध विरे | ज्ञानबंध नुरे | स्वस्वरूपी ॥५६॥
स्थिति ही लाभणे | केवळ कृपेने | श्रीगुरू चरणे | हृदयी ध्यावी ॥५७॥
ज्ञानाज्ञानभेद | कैसे मिथ्यपण | केलेसे कथन | चवथ्यात ॥५८॥
गुरूकृपे होय | अज्ञान विलय | ज्ञानही विलय | पावतसे ॥५९॥
विलय संबोध | शब्दाचा तो बोध | ज्ञान नित्य बोध | बोधावीण ॥६०॥
जैसे निद्राभान | निद्रेत लोपोन | जागृतीत ज्ञान | निद्रेचे हो ॥६१॥
तैसे होई भान | जागृतीत जाण | परि नित्य भान | जाणीवेचे ॥६२॥
जाणीव स्वरूप | ज्ञानाचे ते रूप | नेणीव स्वरूप | लेवोनि जे ॥६३॥
ज्ञप्तिमात्र ऐसे | ज्ञान मूूळ तैसे | भावाभावातीत | स्वयंसिद्ध ॥६४॥
सच्चिदानंद जे | पदत्रय विराजे | विवरण साजे | पाचव्यांत ॥६५॥
सत् चित् अन् | आनंद म्हणोन | दाविले वर्णून | आत्मरूप ॥६६॥
असत् जड व | दु:खाचा अभाव | दाखवाया माव | शब्द तीन ॥६७॥
आत्मरूप परि | वर्णाया न सरी | प्रमेेयालंकारी | असमर्थ ॥६८॥
शब्द ते अपुरे | सापेक्षता नुरे | सुखस्वरूप रे | द्रष्टा होय ॥६९॥
द्रष्टेपणा लय | होवोनि विलय | स्थिति जी होय | स्वसंवेद्य ॥७०॥
विलयी एकत्व | शब्दांसी मौनत्व | ऐसे आत्मतत्त्व | स्वस्वरूप ॥७१॥
शब्द खंडणाचा | शिष्ट त्या शब्दाचा | फोलपणा साचा | षष्टाध्यायी ॥७२॥
श्रीगुरू उद्गाता | आत्मस्मृति दाता | शब्दचि सर्वथा | तत्वमसि ॥७३॥
शब्द जो ॐकार | शिव तो साचार | दावी निराकार | उच्चार जो ॥७४॥
जीवशिवपण | शब्देचि वर्णन | सृष्टी भासमान | शब्दे होय ॥७५॥
अहं ब्रह्म सिद्ध | शब्द जो प्रसिद्ध | मुक्त होय बद्ध | शब्देचि या ॥७६॥
आत्मस्मृति अंती | शब्द मावळती | स्वसंवेद्य स्थिति | स्वभावे गा ॥७७॥
आत्मस्मृति जरी | शब्द दावी तरी | वर्णाया अपुरी | शब्दशक्ति ॥७८॥
आत्मरूप ऐसे | शब्दोच्छिष्ट कैसे | जैसे असे तैसे | वर्णवेना ॥७९॥
आपणासी जाणी | त्रिपुटी लोपोनि | जाणही नुरोनि | केवल ते ॥८०॥
नाश अविद्येचा | शब्द करी साचा | बोल हा फुकाचा | सर्वथैव ॥८१॥
अविद्येसी जाण | मिथ्या साचपण | बोल हे कारण | तेणे गुणे ॥८२॥
अविद्या जी असे | विद्यमान नसे | जरी साच भासे | मायावी ती ॥८३॥
शब्द हा फोल | अविद्या नाशेल | आत्मया वर्णिल | अशक्यचि ॥८४॥
अज्ञान खंडण | सप्तम गहन | अध्याय प्रधान | सर्वात तो ॥८५॥
अज्ञान अज्ञान | तयाचे खंडण | कैसे विलक्षण | प्रमेय ते ॥८६॥
ठाव अज्ञानासी | जरी सत्यत्वेसी | येता प्रचितीसी | ज्ञानचि ते ॥८७॥
स्वरूपी जरी ते | अज्ञान वसते | कैसे त्या जाणते | स्वरूप ते ॥८८॥
ज्ञानाधारे वसे | अज्ञान ते कसे | ज्ञान लोप नसे | जेणे गुणे ॥८९॥
म्हणोनि अज्ञाना | ठाव ना ना जाणा | केवल कल्पना | सत्य नाही ॥९०॥
ज्ञानाज्ञान भान | आत्मया नसोन | सच्चिद्सुखघन | स्वसंवेद्य ॥९१॥
अज्ञानापासून | जन्मे कैसे ज्ञान | त्यासी सामर्थ्य न | ऐसे राही ॥९२॥
अन् ज्ञानातून | जन्मले अज्ञान | तरि ते चि ज्ञान | केवळ गा ॥९३॥
म्हणोनि चिन्मात्र | आत्मतत्त्व मात्र | नटले सर्वत्र | विश्वाभासी ॥९४॥
द्रष्टा आत्मरूप | दृश्य विश्वरूप | देखतो स्वरूप | आपुलेचि ॥९५॥
तरंग कल्लोळ | जळावरी जळ | जळाचा तो खेळ | स्वत:वरी ॥९६॥
आत्मा तैशापरी | खेळे विश्वभरी | भोगे येणे परी | स्व-स्वरूप ॥९७॥
चहूकडोन ती | असे आत्मस्फुर्ति | द्रष्टा दृश्यत्वे ती | स्फुरद्रूप ॥९८॥
नित्यद्रष्टा असे | नित्यतृप्त असे | सर्वत्र जो वसे | आत्मरूप ॥९९॥
ज्ञानखंडण ही | आठव्या अध्यायी | जाण ज्ञानाची ही | नुरविली ॥१००॥
ज्ञानस्वरूपाचे | नुरे भान साचे | व्यर्थ वाउगेचे | ज्ञानाज्ञान ॥१०१॥
जीवन्मुक्तदशा | कैसी ती विशेषा | अद्वैताची भाषा | नवव्यात ॥१०२॥
ज्ञाता स्वये होय | आत्मरूपमय | इंद्रिये विषय | आत्मरूप ॥१०३॥
दृश्य आत्मरूप | दृष्टा आत्मरूप | भोेक्ता आत्मरूप | भोग्य ते ही ॥१०४॥
येणेचि कारणे | भोक्तृत्त्वासी उणे | कर्तेपणाविणे | ज्ञाता नित्य ॥१०५॥
एकचि अद्वैत | नांदेे सदोदित | स्थिति शब्दातीत | ज्ञात्याची गा ॥१०६॥
जी जी स्थिति पावे | भक्ति चि स्वभावे | ज्ञाता तो विसावे | आत्ममय ॥१०७॥
जीवन्मुक्त स्थिति | ऐसी ही वर्णिती | ज्ञानदेव मति | विलक्षण ॥१०८॥
ग्रंथ महिमान | केले ते वर्णन | जेणे समापन | दहाव्यात ॥१०९॥
स्थिति वर्णू जाता | ऐसी अद्भुतता | वेद ही तत्त्वता | मौनावले ॥११०॥
तेचि वर्णियेले | ज्ञानदेवे भले | शब्दी गुंफियेले | स्वानुभव ॥१११॥
अनुभवामृत | अद्वैत अमृत | स्वानंदपूरित | अनुभव ॥११२॥
आशीर्वचयुक्त | ग्रंथाची प्रचित | विश्वजना प्राप्त | सेविताचि ॥११३॥
सेवन ते होता | स्वानंदपूरिता | सार ते तत्त्वता | मनी आले ॥११४॥
शब्दी गुंफोनिया | मोदभरे हृदया | भावे नमुनिया | माऊलीसी ॥११५॥
आशीर्वच आस | ठेवोनि हृदयास | अन् तो विश्वास | माऊलीचा ॥११६॥
अमृतानुभव | द्यावा अनुभव | वोळोे कृपार्णव | श्रीगुरुत्व ॥११७॥
हे अमृतसार | अद्वैताचा हार | अर्पितो किंकर | कृष्णदास ॥११८॥
* * *
— कृष्णदास

भाद्रपद पौर्णिमा शके १९३६
(९ सप्टेंबर २०१४)

श्री अमृतसार Printable PDF फाईल डाऊनलोड करण्यास येथे टिचकी मारा.


 

— सर्व रचना © कृष्णदास


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *